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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-ब्रह्मज्ञान का निरास द्वारा अज्ञाननिवृत्ति की प्रक्रिया ही सदोष और त्रुटिपूर्ण है। इस खण्डन प्रसंग उन्हों ने एक वेदान्तसंमत अति रमणीय और विचारणीय प्रक्रिया का भी सविस्तर उल्लेख कर के खण्डन किया है । वह प्रक्रिया इस प्रकार है-[६७६] वेदान्त पार. मार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक ऐसी तीन सत्ताएँ मानता है जो अज्ञानगत तीन शक्तियों का कार्य है । अज्ञान की प्रथमा शक्ति ब्रह्मभिन्न वस्तुओं में पारमार्थिकत्व बुद्धि पैदा करती है जिस के वशीभूत हो कर लोग बाह्य वस्तुओंको पारमार्थिक मानते और कहते हैं । नैयायिकादि दर्शन, जो आत्ममिन्न वस्तुओं का भी पारमार्थिकत्व मानते है, वह अज्ञानगत प्रथम शक्ति का ही परिणाम है अर्थात् आत्मभिन्न बाह्य वस्तुओं को पारमार्थिक समझने वाले सभी दर्शन प्रथमशक्तिगर्भित अज्ञानजनित हैं । जब वेदान्तवाक्य से ब्रह्मविषयक श्रवणादि का परिपाक होता है तब वह अज्ञान की प्रथम शक्ति निवृत्त होती है जिस का कि कार्य था प्रपश्च में पारमार्थिकत्व बुद्धि करना । प्रथम शक्ति के निवृत्त होते ही उस की दूसरी शक्ति अपना कार्य करती है। वह कार्य है प्रपञ्च में व्यावहारिकत्व की प्रतीति । जिस ने श्रवण, मनन, निदिध्यासन सिद्ध किया हो वह प्रपञ्च में पारमार्थिकत्व कभी जान नहीं सकता पर दूसरी शक्ति द्वारा उसे प्रपञ्च में व्यावहारिकत्व की प्रतीति अवश्य होती है । ब्रह्मसाक्षात्कार से दूसरी शक्ति का नाश होते ही तजन्य व्यावहारिकत्व प्रतीति का भी नाश हो जाता है। जो ब्रह्मसाक्षात्कार• वान हो वह प्रपञ्च को व्यावहारिक रूप से नहीं जानता; पर तीसरी शक्ति के शेष रहने से उस के बल से वह प्रपञ्च को प्रातिमासिक रूप से प्रतीत करता है । वह तीसरी शक्ति तथा उस का प्रातिभासिक प्रतीतिरूप कार्य ये दोनों अंतिम बोध के साथ निवृत्त होते हैं और तभी बन्ध मोक्ष की प्रक्रिया भी समाप्त होती है। उपाध्यायजी ने उपर्युक्त वेदान्त प्रक्रिया का बलपूर्वक खण्डन किया है। क्यों कि अगर वे उस प्रक्रिया का खण्डन न करें तो इस का फलितार्थ यह होता है कि वेदान्त के कथनानुसार जैन दर्शन भी प्रथमशक्तियुक्त अज्ञान का ही विलास है अत एव असत्य है। उपाध्यायजी मौके मौके पर जैन दर्शन की यथार्थता ही साबित करना चाहते हैं। अत एव उन्हों ने पूर्वाचार्य हरिभद्र की प्रसिद्ध उक्ति [पृ० १.२६] - जिस में पृथ्वी आदि बाम तत्त्वों की तथा रागादिदोषरूप आन्तरिक वस्तुओं की वास्तविकता का चित्रण हैउस का हवाला दे कर वेदान्त की उपर्युक्त अज्ञानशक्ति-प्रक्रिया का खण्डन किया है। .. इस जगह वेदान्त की उपर्युक्त अज्ञानगत त्रिविध शक्ति की त्रिविध सृष्टि वाली प्रक्रिया के साथ जैनदर्शन की त्रिविध आत्मभाव वाली प्रक्रिया की तुलना की जा सकती है। __ जैन दर्शन के अनुसार बहिरात्मा, जो मिथ्यादृष्टि होने के कारण तीव्रतम कषाय और तीनतम अज्ञान के उदय से युक्त है अत एव जो अनात्माको आत्मा मान कर सिर्फ उसीमें प्रवृत्त होता है, वह वेदान्तानुसारी आधशक्तियुक्त अज्ञान के बल से प्रपञ्च में पारमार्थिकत्व की प्रतीति करने वाले के स्थान में है। जिस को जैन दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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