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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-पदस्थानपतितत्व और पूर्वगत गाथा यहाँ यह ध्यान रहे कि जैन तत्त्वज्ञ 'शास्त्र' शब्द से जैन शास्त्र कोखास कर साधु-जीवन के विधि-निषेध प्रतिपादक शास्त्र को ही लेता हैजब कि वैदिक तत्त्वचिन्तक, शास्त्र शब्द से उन सभी शास्त्रों को लेता है जिनमें वैयक्तिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, धार्मिक और राजकीय आदि सभी कर्तव्यों का विधान है। ४ अन्ततो गत्वा अहिंसा का मर्म जिनाज्ञा ४ अन्ततो गत्वा अहिंसा का तात्पर्य वेद के-जैन शास्त्र के यथावत् अनु- तथा स्मृतियों की आज्ञा के सरणमें ही है। पालन में ही है। उपाध्यायजी ने उपर्युक्त चार भूमिकावाली अहिंसा का चतुर्विध वाक्यार्थ के द्वारा निरूपण कर के उस के उपसंहार में जो कुछ लिखा है वह वेदानुयायी मीमांसक और नैयायिक की अहिंसाविषयक विचार-सरणि के साथ एक तरह की जैन विचारसरणि की तुलना मात्र है। अथवा यों कहना चाहिए कि वैदिक विचारसरणि के द्वारा जैन विचारसरणि का विश्लेषण ही उन्हों ने किया है । जैसे मीमांसकों ने वेदविहित हिंसा को छोड कर ही हिंसा में अनिष्टजनकत्व माना है वैसे ही उपाध्यायजी ने अन्त में स्वरूप हिंसा को छोड कर ही मात्र हेतु-परिणाम हिंसा में ही अनिष्टजनकत्व बतलाया है। (५) षट्स्थानपतितत्व और पूर्वगत गाथा [२७] श्रुतचर्चा के प्रसंग में अहिंसा के उत्सर्ग-अपवाद की विचारणा करने के बाद उपाध्यायजी ने श्रुत से संबंध रखनेवाले अनेक ज्ञातव्य मुद्दों पर विचार प्रकट करते हुए षट्स्थान' के मुद्दे की भी शास्त्रीय चर्चा की है जिस का समर्थन हमारे जीवनगत अनुभव से ही होता रहता है। एक ही अध्यापक से एक ही प्रन्थ पढनेवाले अनेक व्यक्तियों में, शब्द एवं अर्थ का ज्ञान समान होने पर भी उस के भावों व रहस्यों के परिज्ञान का जो तारतम्य देखा जाता है वह उन अधिकारियों की आन्तरिक शक्ति के तारतम्य का ही परिणाम होता है। इस अनुभव को चतुर्दश पूर्वधरों में लागू कर के 'कल्पभाष्य के आधार पर उपाध्यायजी ने बतलाया है कि चतुर्दशपूर्वरूप श्रुत को समान रूपसे पढ़े हुए अनेक व्यक्तियों में भी श्रुतगत भावों के सोचने की शक्ति का अनेकविध तारतम्य होता है जो उन की ऊहापोह शक्ति के तारतम्य का ही परिणाम है। इस तारतम्य को शास्त्रकारों ने छह विभागों में बाँटा है जो षट्स्थान कहलाते हैं। भावों को जो सब से अधिक जान सकता है वह श्रुतधर उत्कृष्ट कहलाता है। उस की अपेक्षा से हीन, हीनतर, हीनतम रूप से छह कक्षाओं का वर्णन है । उत्कृष्ट ज्ञाता की अपेक्षा-१ अनन्तभागहीन, २ असंख्यातभागहीन, ३ संख्यातभागहीन, ४ संख्यातगुणहीन, ५ असंख्यातगुणहीन और ६ अनन्तगुणहीन-ये क्रमशः उतरती हुई छह कक्षाएँ हैं। इसी तरह सब से न्यून भावों को जाननेवाले की अपेक्षा-१ अनन्तभागअधिक, २ असंख्यातभागअधिक, ३ १ देखो, टिप्पण पू. १९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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