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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - अहिंसा का स्वरूप और विकास (१) प्राण का नाश हिंसारूप होने से उस को रोकना ही अहिंसा है। (२) जीवन धारण की समस्या में से फलित हुआ कि जीवन-खास कर संयमी जीवन के लिए अनिवार्य समझी जाने वाली प्रवृत्तियाँ करते रहने पर अगर जीवघात हो भी जाय तो भी यदि प्रमाद नहीं है तो वह जीवघात हिंसारूप न हो कर अहिंसा ही है। (३) अगर पूर्णरूपेण अहिंसक रहना हो तो वस्तुतः और सर्वप्रथम चित्तगत केश (प्रमाद) का ही त्याग करना चाहिए। यह हुआ तो अहिंसा सिद्ध हुई। अहिंसा का बाध प्रवृत्तियों के साथ कोई नियत संबंध नहीं है । उस का नियत संबंध मानसिक प्रवृत्तियों के साथ है। . (१) वैयक्तिक या सामूहिक जीवन में ऐसे भी अपवाद स्थान आते हैं जब कि हिंसा मात्र अहिंसा ही नहीं रहती प्रत्युत वह गुणवर्धक भी बन जाती है। ऐसे आपवादिक स्थानों में अगर कही जाने वाली हिंसा से डर कर उसे आचरण में न लाया जाय तो उलटा दोष लगता है। ऊपर हिंसा-अहिंसा संबंधी जो विचार संक्षेप में बतलाया है उस की पूरी पूरी शास्त्रीय सामग्री उपाध्यायजी को प्राप्त थी अत एव उन्हों ने 'वाक्यार्थ विचार' प्रसंग में जैनसंमत-खास कर साधु जीवनसंमत- अहिंसा को ले कर उत्सर्ग-अपवादभाव की चर्चा की है । उपाध्यायजी ने जैनशास्त्र में पाए जाने वाले अपवादों का निर्देश कर के स्पष्ट कहा है कि ये अपवाद देखने में कैसे ही क्यों न अहिंसाविरोधी हों, फिर भी उन का मूल्य औत्सर्गिक अहिंसा के बराबर ही है । अपवाद अनेक बतलाए गए हैं, और देश-काल के अनुसार नए अपवादों की भी सृष्टि हो सकती है। फिर भी सब अपवादों की आत्मा मुख्यतया दो तत्त्वों में समा जाती है। उनमें एक तो है गीतार्थत्व यानि परिणतशास्त्रज्ञान का और दूसरा है कृतयोगित्व अर्थात् चित्तसाम्य या स्थितप्रज्ञत्व का। उपाध्यायजी के द्वारा बतलाई गई जैन अहिंसा के उत्सर्ग-अपवाद की यह चर्चा, ठीक अक्षरशः मीमांसा और स्मृति के अहिंसा संबंधी उत्सर्ग-अपवाद की विचारसरणि से मिलती है । अन्तर है तो यही कि जहाँ जैन विचारसरणि साधु या पूर्ण त्यागी के जीवन को लक्ष्य में रख कर प्रतिष्ठित हुई है वहाँ मीमांसक और स्मातों की विचारसरणि गृहस्थ, त्यागी सभी के जीवन को केन्द्र स्थान में रख कर प्रचलित हुई है। दोनों का साम्य इस प्रकार है१ जैन २ वैदिक १ सव्वे पाणा न हंतव्वा १ मा हिंस्यात् सर्वभूतानि २ साधुजीवन की अशक्यता का २ चारों आश्रम के सभी प्रकार के अधिका रियों के जीवन की तथा तत्संबंधी कर्तव्यों की अशक्यता का प्रश्न ३ शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसादोष ३ शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसादोष का का अभाव अर्थात् निषिद्धाचरण अभाव अर्थात् निषिद्धाचार ही हिंसा है ही हिंसा प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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