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________________ ३६ ज्ञानबिन्दुपरिचय-षट्स्थानपतितत्व और पूर्वगत गाथा संख्यातभागअधिक, ४ संख्यातगुणअधिक, ५ असंख्यातगुणअधिक और ६ अनन्तगुणअधिक-ये क्रमशः चढ़ती हुई कक्षाएँ हैं। श्रुत की समानता होने पर भी उस के भावों के परिज्ञानगत तारतम्य का कारण जो ऊहापोहसामर्थ्य है उसे उपाध्यायजी ने श्रुतसामर्थ्य और मतिसामर्थ्य उभयरूप कहा है- फिर भी उन का विशेष झुकाव उसे श्रुतसामर्थ्य मानने की और स्पष्ट है। ___ आगे श्रुत के दीर्घोपयोग विषयक समर्थन में उपाध्यायजी ने एक पूर्वगत गाथा का [पृ० ९. पं० ६ ] उल्लेख किया है, जो 'विशेषावश्यकभाष्य' [गा० ११७ ] में पाई जाती है । पूर्वगत शब्द का अर्थ है पूर्व-प्राक्तन । उस गाथा को पूर्वगाथा रूपसे मानते आने की परंपरा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जितनी तो पुरानी अवश्य जान पड़ती है; क्यों कि कोट्याचार्यने भी अपनी वृत्ति में उस का पूर्वगत गाथा रूपसे ही व्याख्यान किया है । पर यहां पर यह बात जरूर लक्ष्य खींचती है कि पूर्वगत मानी जाने वाली वह गाथा दिगम्बरीय ग्रन्थों में कहीं नहीं पाई जाती और पांच ज्ञानों का वर्णन करने वाली 'आवश्यकनियुक्ति' में भी वह गाथा नहीं है । हम पहले कह आए हैं कि अक्षर-अनक्षर रूपसे श्रुत के दो भेद बहुत पुराने हैं और दिगम्बरीय-श्वेताम्बरीय दोनों परंपराओं में पाए जाते हैं । पर अनक्षर श्रुत की दोनों परं. परागत व्याख्या एक नहीं है । दिगम्बर परंपरा में अनक्षरश्रुत शब्द का अर्थ सब से पहले अकलंक ने ही स्पष्ट किया है। उन्हों ने स्वार्थश्रुत को अनक्षरश्रुत बतलाया है। जब कि श्वेताम्बरीय परंपरा में नियुक्ति के समय से ही अनक्षरभुत का दूसरा अर्थ प्रसिद्ध है। नियुक्ति में अनक्षरश्रुत रूपसे उच्छ्वसित, नि:श्वसित आदि ही श्रुत लिया गया है। इसी तरह अक्षरश्रुत के अर्थ में भी दोनों परंपराओं का मतभेद है। अकलंक परार्थ वचनात्मक श्रुत को ही अक्षरश्रुत कहते हैं जो कि केवल द्रव्यश्रुत रूप है। तब, उस पूर्वगत गाथा के व्याख्यान में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण त्रिविध अक्षर बतलाते हुए अक्षरश्रुत को द्रव्य-भाव रूपसे दो प्रकार का बतलाते हैं। द्रव्य और भाव रूपसे श्रुतके दो प्रकार मानने की जैन परंपरा तो पुरानी है और श्वेताम्बर-दिगम्बर शास्त्रों में एक-सी ही है पर अक्षरश्नुत के व्याख्यान में दोनों परंपराओं का अन्तर हो गया है । एक परंपरा के अनुसार द्रव्यश्रुत ही अक्षरभुत है जब कि दूसरी परंपरा के अनुसार द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का अक्षरभुत है। द्रव्यश्रुत शब्द जैन वाङ्मय में पुराना है पर उस के व्यसनाक्षर-संज्ञाक्षर नाम से पाए जानवाले दो प्रकार दिगम्बर शास्त्रों में नहीं है। द्रव्यश्रुत और भावश्रुत रूपसे शास्त्रज्ञान संबंधी जो विचार जैन परंपरा में पाया जाता है और जिस का विशेष रूप से स्पष्टीकरण उपाध्यायजी ने पूर्वगत गाथा का व्याख्यान करते हुए किया है, वह सारा विचार, आगम (श्रुति) प्रामाण्यवादी नैयायिकादि सभी वैदिक दर्शनों की परंपरा में एक-सा है और अति विस्तृत पाया जाता है। इस की शाब्दिक तुलना नीचे लिखे अनुसार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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