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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-प्रन्थका आभ्यन्तर स्वरूप दार्शनिक परंपरा में चार शैलियाँ प्रसिद्ध हैं-१. सूत्र शैली, २. कारिका शैली, ३. व्याख्या शैली, और ४. वर्णन शैली । मूल रूपसे सूत्र शैली का उदाहरण है 'न्यायसूत्र' आदि । मूल रूपसे कारिका शैली का उदाहरण है 'सांख्यकारिका' आदि । गद्य पद्य या उभय रूपमें जब किसी मूल ग्रन्थ पर व्याख्या रची जाती है तब वह है व्याख्या शैलीजैसे 'भाष्य' 'वार्तिकादि' ग्रन्थ । जिस में स्वोपज्ञ या अन्योपज्ञ किसी मूल का अवलम्बन न हो; किन्तु जिस में ग्रन्थकार अपने प्रतिपाद्य विषय का स्वतन्त्र भाव से सीधे तौर पर वर्णन ही वर्णन करता जाता है और प्रसक्तानुप्रसक्त अनेक मुख्य विषय संबन्धी विषयों को उठा कर उनके निरूपण द्वारा मुख्य विषय के वर्णन को ही पुष्ट करता है वह है वर्णन या प्रकरण शैली । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना, इस वर्णन शैली से की गई है। जैसे विद्यानन्द ने 'प्रमाणपरीक्षा' रची, जैसे मधुसूदन सरस्वती ने 'वेदान्तकल्पलतिका' और सदानन्द मे 'वेदान्तसार' वर्णन शैली से बनाए, वैसे ही उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु की रचना वर्णन शैली से की है । इस में अपने या किसी अन्य के रचित गद्य या पद्य रूप मूल का अवलम्बन नहीं है। अत एव समूचे रूपसे ज्ञानबिन्दु किसी मूल प्रन्थ की व्याख्या नहीं है। यह तो सीधे तौर से प्रतिपाद्य रूपसे पसन्द किये गये ज्ञान और उसके पञ्चविध प्रकारों का निरूपण अपने ढंग से करता है । इस निरूपण में ग्रन्थकार ने अपनी योग्यता और मर्यादा के अनुसार मुख्य विषय से संबन्ध रखने वाले अनेक विषयों की चर्चा छानबीन के साथ की है, जिस में उन्हों ने पक्ष या विपक्ष रूपसे अनेक प्रन्थकारों के मन्तव्यों के अवतरण भी दिए हैं । यद्यपि प्रन्थकार ने आगे जा कर 'सन्मति' की अनेक गाथाओं को ले कर (१० ३३) उनका क्रमशः स्वयं व्याख्यान भी किया है, फिर भी वस्तुतः उन गाथाओं को लेना तथा उनका व्याख्यान करना प्रासंगिक मात्र है । जब केवलज्ञान के निरूपण का प्रसंग आया और उस संबन्ध में आचार्यों के मतभेदों पर कुछ लिखना प्राप्त हुआ, तब उन्हों ने सन्मतिगत कुछ महत्त्व की गाथाओं को ले कर उनके व्याख्यान रूपसे अपना विचार प्रकट कर दिया है । खुद उपाध्यायजी ने ही "एतच्च तत्त्वं सयुक्तिकं सम्मतिगाथाभिरेव प्रदर्शयामः" (पृ० ३३) कह कर वह भाव स्पष्ट कर दिया है । उपाध्यायजी ने 'अनेकान्तव्यवस्था आदि अनेक प्रकरण प्रन्थ लिखे हैं जो ज्ञानबिन्दु के समान वर्णन शैली के हैं। इस शैली का अवलम्बन करने की प्रेरणा करनेवाले वेदान्तकल्पलतिका, वेदान्तसार, 'न्यायदीपिका' आदि अनेक वैसे प्रन्थ थे जिनका उन्होंने उपयोग भी किया है। ग्रन्थ का आभ्यन्तर खरूप प्रन्थके आभ्यन्तर स्वरूप का पूरा परिचय तो तभी संभव है जब उस का अध्ययनअर्थग्रहण और ज्ञात अर्थ का मनन-पुनः पुनः चिन्तन किया जाय । फिर भी इस ग्रन्थ के जो अधिकारी हैं उन की बुद्धि को प्रवेशयोग्य तथा रुचिसम्पन्न बनाने की दृष्टि से यहाँ उस के विषय का कुछ स्वरूपवर्णन करना जरूरी है। प्रन्थकार ने ज्ञान के स्वरूप को समझाने के लिए जिन मुख्य मुख्य मुद्दों पर चर्चा की है और प्रत्येक मुख्य मुद्दे की चर्चा करते समय प्रासंगिक रूपसे जिन दूसरे मुद्दों पर भी विचार किया है, उन मुद्दों का यथासंभव दिग्दर्शन कराना इस जगह इष्ट है । हम ऐसा दिग्दर्शन कराते समय यथासंभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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