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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - ज्ञानकी सामान्य चर्चा १३ तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टि का उपयोग करेंगे जिस से अभ्यासीगण प्रन्थकार द्वारा चर्चित मुद्दों को और भी विशालता के साथ अवगाहन कर सकें तथा ग्रन्थ के अन्त में जो टिप्पण दिये गये हैं उनका हार्द समझने की एक कुंजी भी पा सकें । प्रस्तुत वर्णन में काम में लाई जाने वाली तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक दृष्टि यथासंभव परिभाषा, विचार और साहित्य इन तीन प्रदेशों तक ही सीमित रहेगी। १. ज्ञान की सामान्य चर्चा प्रन्थकार ने प्रन्थ की पीठिका रचते समय उस के विषयभूत ज्ञान की ही सामान्य रूपसे पहले चर्चा की है, जिस में उन्हों ने दूसरे अनेक मुद्दों पर शास्त्रीय प्रकाश डाला है। वे मुरे ये हैं १. ज्ञान सामान्य का लक्षण, २. उस की पूर्ण-अपूर्ण अवस्थाएं तथा उन अवस्थाओं के कारण और प्रतिबन्धक कर्म का विश्लेषण, ३. ज्ञानाधारक कर्म का स्वरूप, ४. एक तस्व में 'आवृतानावृतत्व' के विरोध का परिहार, ५. वेदान्तमत में 'आवृतानावृतत्व' की अनुपपत्ति, ६. अपूर्णज्ञानगत तारतम्य तथा उस की निवृत्तिका कारण, और ७. क्षयोपशम की प्रक्रिया । १.[११] प्रन्थकार ने शुरू ही में ज्ञानसामान्य का जैनसम्मत ऐसा स्वरूप बतलाया है कि-जो एक मात्र आत्मा का गुण है और जो स्व तथा पर का प्रकाशक है वह ज्ञान है । जैनसम्मत इस ज्ञानस्वरूप की दर्शनान्तरीय ज्ञानस्वरूप के साथ तुलना करते समय आर्यचिन्तकों की मुख्य दो विचारधाराएँ ध्यान में आती हैं। पहली धारा है सांख्य और वेदान्त मै, और दूसरी है बौद्ध, न्याय आदि दर्शनों में । प्रथम धारा के अनुसार, ज्ञान गुण और चित् शक्ति इन दोनों का आधार एक नहीं है; क्यों कि पुरुष और ब्रह्म ही उस में चेतन माना गया है, जब कि पुरुष और ब्रह्म से अतिरिक्त अन्तःकरण को ही उसमें ज्ञान का आधार माना गया है। इस तरह प्रथम धारा के अनुसार चेतना और ज्ञान दोनों भिन्न भिम भाधारगत हैं। दूसरी धारा, चैतन्य और ज्ञान का आधार भिन्न भिन्न न मान कर, उन दोनों को एक आधारगत अत एव कारण-कार्यरूप मानती है। बौद्धदर्शन चित्त में, जिसे वह माम भी कहता है, चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानता है। जब कि न्यायादि दर्शन क्षणिक चित्तके बजाय स्थिर आत्मा में ही चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानते हैं। जैन दर्शन दूसरी विचारधारा का अवलम्बी है। क्यों कि वह एक ही आत्मतत्व में कारण रूपसे चेतना को और कार्य रूपसे उस के पान पर्याय को मानता है। उपाध्यायजी ने उसी भाव ज्ञान को आत्मगुण-धर्म कह कर प्रकट किया है। १इस तरह चतुष्कोण कोष्टक में दिये गए ये अंक ज्ञानबिन्दु के मूल प्रन्थकी कंडिका के राग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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