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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-३. रचनाशैली .. अबतक जैन परंपरा ने ज्ञान के विचारक्षेत्र में जो अनेकमुखी विकास प्राप्त किया था और जो विशालप्रमाण ग्रन्थराशि पैदा की थी एवं जो मानसिक स्वातव्य की उच्च तार्किक भूमिका प्राप्त की थी, वह सब तो उपाध्याय यशोविजयजी को विरासत में मिली ही थी, पर साथ ही में उन्हें एक ऐसी सुविधा भी प्राप्त हुई थी जो उनके पहले किसी जैन विद्वान् को न मिली थी। वह सुविधा है उदयन तथा गंगेशप्रणीत नव्य न्यायशास्त्र के अभ्यास का साक्षात् विद्याधाम काशी में अवसर मिलना । इस सुविधा का उपाध्यायजी की जिज्ञासा और प्रज्ञा ने कैसा और कितना उपयोग किया इस का पूरा खयाल तो उसी को आ सकता है जिस ने उन की सब कृतियों का थोड़ा सा मी अध्ययन किया हो । नव्य न्याय के उपरान्त उपाध्यायजी ने उस समय तक के अति प्रसिद्ध और विकसित पूर्वमीमांसा तथा वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का मी अच्छा परिशीलन किया । आगमिक और दार्शनिक ज्ञान की पूर्वकालीन तथा समकालीन समस्त विचार सामग्री को आत्मसात् करने के बाद उपाध्यायजी ने ज्ञान के निरूपणक्षेत्र में पदार्पण किया। - उपाध्यायजी की मुख्यतया ज्ञाननिरूपक दो कृतियाँ हैं । एक 'जैनतर्कभाषा' और दूसरी प्रस्तुत 'ज्ञानबिन्दु'। पहली कृति का विषय यद्यपि ज्ञान ही है तथापि उस में उस के नामानुसार तर्कप्रणाली या प्रमाणपद्धति मुख्य है । तर्कभाषा का मुख्य उपादान 'विशेषावश्यकभाष्य' है, पर वह अकलंक के 'लघीयस्त्रय' तथा 'प्रमाणसंग्रह' का परिष्कृत किन्तु नवीन अनुकरण संस्फरणे भी है । प्रस्तुत शानबिन्दु में प्रतिपाद्य रूपसे उपाध्यायजी ने पञ्चविध ज्ञान वाला आगमिक विषय ही धुना है जिस में उन्हों ने पूर्वकाल में विकसित प्रमाणपद्धति को कहीं भी स्थान नहीं दिया। फिर भी जिस युग, जिस विरासत और जिस प्रतिभा के वे धारक थे, वह सब अति प्राचीन पञ्चविध ज्ञान की चर्चा करने वाले उन के प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु प्रन्थ में न आवे यह असंभव है । अत एव हम आगे जा कर देखेंगे कि पहले के करीब दो हजार वर्ष के जैन साहित्य में पञ्चविधज्ञानसंबन्धी विचार क्षेत्र में जो कुछ सिद्ध हो चुका था वह तो करीब करीब सब, प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में आया ही है, पर उस के अतिरिक ज्ञानसंबन्धी अनेक नए विचार भी, इस ज्ञानबिन्दु में सन्निविष्ट हुए हैं, जो पहले के किसी जैन प्रस्थ में नहीं देखे जाते । एक तरह से प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु विशेषावश्यकभाष्यगत प्रश्वविधज्ञानवर्णन का नया परिष्कृत और नवीन दृष्टि से सम्पन्न संस्करण है। ३. रचनाशैली प्रस्तुत ग्रन्थ ज्ञानबिन्दु की रचनाशैली किस प्रकार की है इसे स्पष्ट समझने के लिए शास्त्रों की मुख्य मुख्य शैलियों का संक्षिप्त परिचय आवश्यक है । सामान्य रूपसे १ देखो जैनतर्कभाषा की प्रशस्ति-"पूर्व न्यायविशारदखबिरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः ।" २ लघीयत्रय में तृतीय प्रवचन प्रवेश में क्रमशः प्रमाण, नय और निक्षेप का वर्णन अकलंकन किया है। वैसे ही प्रमाणसंग्रह के अंतिम नवम प्रस्ताव में भी उन्हीं तीन विषयों का संक्षेप में वर्णन है। लघीयत्रय और प्रमाणसंग्रह में अन्यत्र प्रमाण और नय का विस्तृत वर्णन तो है ही, फिर भी उन दोनों ग्रन्थों के अंतिम प्रस्ताव में प्रमाण, नय और निक्षेप की एक साथ संक्षिप्त चर्चा उन्होंने कर दी है जिससे स्पष्टतया उन तीनों विषयों का पारस्परिक भेद समझ में आ जाय । यशोविजयजी ने अपनी तर्कभाषा को, इसी का अनुकरण करके, प्रमाण, नय, और निक्षेप ३॥ तीन परिच्छेदों में विभक्त किया है। .................. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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