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ज्ञानविन्दुपरिचय-२. विषय विवेचन प्रकृतियों का विभाजन है, जो लुप्त हुए 'कर्मप्रवाद' पूर्व की अवशिष्ट परंपरा मात्र है। इस पञ्चविध ज्ञान का सारा स्वरूप दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसे दोनों ही प्राचीन संघों में एक सा रहा है । यह सब इतना सूचित करने के लिए पर्याप्त है कि पश्चविध ज्ञान विभाग
और उस का अमुक वर्णन तो बहुत ही प्राचीन होना चाहिए। - प्राचीन जैन साहित्य की जो कार्मग्रन्थिक परंपरा है तदनुसार मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल ये पाँच नाम ज्ञानविभागसूचक फलित होते हैं। जब कि आगमिक परंपरा के अनुसार मति के स्थान में 'अभिनिबोध नाम है। बाकी के अन्य चारों नाम कार्मप्रन्थिक परंपरा के समान ही हैं। इस तरह जैन परंपरागत पश्चविध ज्ञानदर्शक नामों में कार्मग्रन्थिक और आगमिक परंपरा के अनुसार प्रथम ज्ञान के बोधक 'मति' और 'अभिनिबोध' ये दो नाम समानार्थक या पर्यायरूपसे फलित होते हैं। बाकी के चार शान के दर्शक श्रुत, अवधि आदि चार नाम उक्त दोनों परंपराओं के अनुसार एक एक ही हैं। उनके दूसरे कोई पर्याय असली नहीं हैं।
स्मरण रखने की बात यह है कि जैन परंपरा के सम्पूर्ण साहित्य ने, लौकिक और लोकोत्तर सब प्रकार के ज्ञानों का समावेश उक्त पञ्चविध विभाग में से किसी न किसी विभाग में, किसी न किसी नाम से किया है । समावेश का यह प्रयत्न जैन परंपरा के सारे इतिहास में एकसा है। जब जब जैनाचार्यों को अपने आप किसी नये ज्ञान के बारे में, या किसी नये ज्ञान के नाम के बारे में प्रश्न पैदा हुआ, अथवा दर्शनान्तरवादियों ने उन के सामने वैसा कोई प्रश्न उपस्थित किया, तब तब उन्हों ने उस ज्ञान का या ज्ञान के विशेष नाम का समावेश उक्त पश्चविध विभाग में मे, यथासंभव किसी एक या दूसरे विभाग में, कर दिया है । अब हमें आगे यह देखना है कि उक्त पञ्चविध ज्ञान-विभाग की प्राचीन जैन भूमिका के आधार पर, क्रमश:-किस किस तरह विचारों का विकास हुआ। ___ जान पड़ता है, जैन परंपरा में ज्ञान संबन्धी विचारों का विकास दो मार्गों से हुआ है। एक मार्ग तो है स्वदर्शनाभ्यास का और दूसरा है दर्शनान्तराभ्यास का । दोनों मार्ग बहुधा परस्पर संबद्ध देखे जाते हैं। फिर भी उन का पारस्परिक भेद स्पष्ट है, जिस के मुख्य लक्षण ये हैं- स्वदर्शनाभ्यासजनित विकास में दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को अपमाने का प्रयत्न नहीं है। न परमतखण्डन का प्रयत्न है और न जल्प एवं वितण्डा कथा का कभी अवलम्बन ही है। उस में अगर कथा है तो वह एकमात्र तत्वबुभुत्सु कथा अर्थात् वाद ही है। जब कि दर्शनान्तराभ्यास के द्वारा हुए ज्ञान विकास में दर्शनान्तरीय परिभाषाओं को आत्मसात् करने का प्रयत्न अवश्य है। उसमें परमत खण्डन के साथ साथ कभी कभी जल्पकथा का भी अवलम्बन अवश्य देखा जाता है। इन लक्षणों को ध्यान में रख कर, मानसंबन्धी जैन विचार-विकासका जब हम अध्ययन करते हैं. तब उस की अनेक ऐतिहासिक भूमिकाएँ हमें जैन साहित्य में देखने को मिलती हैं।
१पंचसंग्रह, पू. १०८. गा० ३ । प्रथम कर्मप्रन्थ, गा. ४ । गोम्मटसार जीवकांड, गा० २९९ ।
२ नन्दी स्त्र, गू० १ । आवश्यक नियुकि, गा० ११ षट्रखंडागम, पु. १. पृ. ३५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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