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________________ शानविन्दुपरिचय - २. विषय विवेचन ज्ञानविकास की किस भूमिका का आश्रय ले कर प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु ग्रन्थ को उपाध्यायजी ने रचा है इसे ठीक ठीक समझने के लिए हम यहाँ ज्ञानविकास की कुछ भूमिकाओं का संक्षेप में चित्रण करते हैं। ऐसी ज्ञातव्य भूमिकाएं नीचे लिखे अनुसार सात कही जा सकती हैं-(१) कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक । (२) नियुक्तिगत । (३) अनुयोगगत । (४) तत्त्वार्थगत । (५) सिद्धसेनीय । (६) जिनभद्रीय, और (७) अकलंकीय । (१)कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक भूमिका वह है जिसमें पञ्चविध ज्ञान के मति या अभिनिबोध आदि पाँच नाम मिलते हैं, और इन्हीं पाँच नामों के आसपास स्वदर्शनाभ्यासजनित थोडाबहुत गहरा तथा विस्तृत भेद-प्रभेदों का विचार भी पाया जाता है। (२) दूसरी भूमिका वह है जो प्राचीन नियुक्ति भाग में, करीब विक्रम की दूसरी शताब्दी तक में, सिद्ध हुई जान पड़ती है । इस में दर्शनान्तर के अभ्यास का थोड़ा सा असर अवश्य जान पड़ता है । क्यों कि प्राचीन नियुक्ति में मतिज्ञान के वास्ते मति और अभिनिबोध शब्द के उपरान्त संज्ञा, प्रज्ञा, स्मृति आदि अनेक पर्याय' शब्दों की जो वृद्धि देखी जाती है और पञ्चविध ज्ञान का जो प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से विभाग देखा जाता है वह दर्शनान्तरीय अभ्यास का ही सूचक है । (३) तीसरी भूमिका वह है जो 'अनुयोगद्वार' नामक सूत्र में पायी जाती है, जो कि प्रायः विक्रमीय दूसरी शताब्दी की कृति है । इस में अक्षपादीय 'न्यायसूत्र' के चार प्रमाणों का' तथा उसी के अनुमान प्रमाण संबन्धी भेद-प्रभेदों का संग्रह है, जो दर्शनान्तरीय अभ्यास का असन्दिग्ध परिणाम है । इस सूत्र में जैन पञ्चविध ज्ञानविभाग को सामने रखते हुए भी उसके कर्ता आर्यरक्षित सूरिने शायद, न्यायदर्शनमें प्रसिद्ध प्रमाणविभाग को तथा उस की परिभाषाओं को जैन विचार क्षेत्र में लाने का सर्व प्रथम प्रयत्न किया है। (४) चौथी भूमिका वह है जो वाचक उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र' और खास कर उन के स्वोपज्ञ भाष्य में देखी जाती है। यह प्रायः विक्रमीय तीसरी शताब्दी के बाद की कृति है । इस में नियुक्ति प्रतिपादित प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का उल्लेख कर के' वाचक ने अनुयोगद्वार १ नियुक्तिसाहित्य को देखने से पता चलता है कि जितना भी नियुक्ति के नाम से साहित्य उपलब्ध होता है वह सब न तो एक ही आचार्य की कृति है और न वह एक ही शताब्दी में बना है। फिर भी प्रस्तुत ज्ञान की चर्चा करनेवाला आवश्यक नियुक्ति का भाग प्रथम भद्रबाहुकृत मानने में कोई आपत्ति नहीं है । अतएव उस को यहाँ विक्रम की दूसरी शताब्दी तक में सिद्ध हुआ कहा गया है। २ आवश्यकनियुक्ति, गा० १२ । ३ बृहत्कल्पभाष्यान्तर्गत भद्रबाहुकृत नियुक्ति-गा० ३, २४, २५ । यद्यपि टीकाकार ने इन गाथाओं को, भद्रबाहवीय नियुक्तिगत होने की सूचना नहीं दी है. फिर भी पूर्वापर के संदर्भ को देखने से, इन गाथाओं को नियुक्तिगत मानने में कोई आपत्ति नहीं है। टीकाकार ने नियुक्ति और भाष्य का विवेक सर्वत्र नहीं दिखाया है, यह बात तो बृहत्कल्प के किसी पाठक को तुरंत ही ध्यान में आ सकती है। और खास बात तो यह है कि भ्यायावतार टीका की टिप्पणी के रचयिता देवभद्र, २५ वी गाथा कि जिसमें स्पष्टतः प्रत्यक्ष और परोक्ष का पक्षण किया गया है, उस को भगवान् भद्रबाह की होने का स्पष्टतया सूचन करते है-न्यायावतार, पृ० १५। ५अनुयोगद्वार सूत्र पू. २११ से। ५ तत्त्वार्थसूत्र १.९-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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