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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय -२. विषय विवेचन व्यापक रहा है, जिसके फलस्वरूप आर्यगण नामकरण करते समय बहुत कुछ सोच विचार करते आए हैं । इस की व्याप्ति यहाँ तक बढ़ी, कि फिर तो किसी भी चीज़ का जब, नाम रखना होता है तो, उस पर खास विचार कर लिया जाता है। प्रन्थों के नामकरण तो रचयिता विद्वानों के द्वारा ही होते हैं, अतएव वे अन्वर्थता के साथ साथ अपने नामकरण में नवीनता और पूर्वपरंपरा का भी यथासंभव सुयोग साधते हैं । 'ज्ञानबिन्दु' नाम अन्वर्थ तो है ही, पर उसमें नवीनता तथा पूर्व परंपरा का मेल भी है । पूर्व परंपरा इस में अनेकमुखी व्यक्त हुई है । बौद्ध, ब्राह्मण और जैन परंपरा के अनेक विषयों के ऐसे प्राचीन प्रन्थ आज भी ज्ञात हैं, जिन के अन्त में 'बिन्दु'शब्द आता है। धर्मकीर्ति के 'हेतुबिन्दु' और 'न्यायविन्दु' जैसे प्रन्थ न केवल उपाध्यायजी ने नाम मात्र से सुने ही थे बल्कि उन का उन ग्रन्थों का परिशीलन भी रहा । वाचस्पति मिश्र के 'तत्त्वबिन्दु' और मधुसूदन सरस्वती के 'सिद्धान्तविन्दु' आदि प्रन्थ सुविश्रुत हैं- जिनमें से 'सिद्धान्तबिन्दु' का तो उपयोग प्रस्तुत 'ज्ञानबिन्दु'में उपाध्यायजीने किया भी है। आचार्य हरिभद्र के बिन्दु अन्तवाले 'योगबिन्दु' और 'धर्मबिन्दु' प्रसिद्ध हैं । इन बिन्दु अन्तवाले नामों की सुन्दर और सार्थक पूर्व परंपरा को उपाध्यायजी ने प्रस्तुत प्रन्थ में व्यक्त करके 'ज्ञानार्णव' और 'ज्ञानबिन्दु' की नवीन जोड़ी के द्वारा नवीनता भी अर्पित की है। २. विषय प्रन्थकार ने प्रतिपाद्य रूप से जिस विषय को पसन्द किया है वह तो प्रन्थ के नाम से ही प्रसिद्ध है। यों तो ज्ञान की महिमा मानववंश मात्र में प्रसिद्ध है, फिर भी आर्य जाति का वह एक मात्र जीवन-साध्य रहा है । जैन परंपरा में ज्ञान की आराधना और पूजा की विविध प्रणालियाँ इतनी प्रचलित है कि कुछ भी नहीं जानने वाला जैन भी इतना तो प्रायः जानता है कि ज्ञान पाँच प्रकार का होता है। कई ऐतिहासिक प्रमाणों से ऐसा मानना पड़ता है कि ज्ञानके पाँच प्रकार, जो जैन परंपरा में प्रसिद्ध हैं, वे भगवान् महा. वीर के पहले से प्रचलित होने चाहिए । पूर्वश्रुत जो भगवान महावीर के पहले का माना जाता है और जो बहुत पहले से नष्ट हुआ समझा जाता है, उस में एक 'ज्ञानप्रवाद' नाम का पूर्व था जिस में श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परंपरा के अनुसार पंचविध ज्ञान का वर्णन था। उपलब्ध भुत में प्राचीन समझे जाने वाले कुछ अंगों में भी उन की स्पष्ट चर्चा है। 'उत्तराध्ययन' जैसे प्राचीन मूल सूत्र में भी उन का वर्णन है । 'नन्दिसूत्र' में तो केवल पाँच ज्ञानों का ही वर्णन है। 'आवश्यकनियुक्ति' जैसे प्राचीन व्याख्या प्रन्थ में पाँच सानों को ही मंगल मान कर शुरू में उन का वर्णन किया है। कर्मविषयक साहित्य के प्राचीन से प्राचीन समझे जाने वाले प्रन्थों में भी पञ्चविध ज्ञान के आधार पर ही कर्म १ "अत एव खयमुक्तं तपखिना सिद्धान्तबिन्दौ”-पृ. २४ । २ अध्ययन २८, गा० ४,५। ३ आवश्यकनियुक्ति, गा.१ से भागे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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