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प्राकृत अपभ्रंश पांडुलिपियों की सम्पादन- प्रक्रिया
छूटे हुए पाठ की पंक्ति का नम्बर- पं. ओ. ।
५.
६. शब्द और अक्षर का भेद । यथा
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७. विभाग दर्शक संकेत ।। यथा
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८. विभक्ति, वचन दर्शकचिह्न - १-१, २- २,३-३ =
( अर्थात् प्रथमा एकवचन, द्वितीया द्विवचन, तृतीया बहुवचन) ९. शब्द का पयार्य सूचक चिह्न = यथा - शशि = चन्द्र आदि । १०. विशेषण, विशेष्यसूचक चिह्न यथा क्षीणे शरीर आदि ।
णूम = माया,
जडु = हाथी,
क्रमणी= जूते,
भहणह = महणह
श्लोक का एक चरण आदि
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ये कुछ सामान्य संशोधन दर्शकचिन्ह हैं । इनके स्वरूप में भी विभिन्न पांडुलिपियों के प्रयोग में अन्तर आ गया है । किन्तु अभ्यास से उन्हें समझा जा सकता है । तान्त्रिक ग्रन्थों में कुछ विशेष प्रकार के चिह्न प्रयुक्त पाये जाते हैं ।
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५. भाषागत विशेषताएं :
देश की प्राय: सभी भाषाओं में जैन साहित्य लिखा गया है। प्राकृत और अपभ्रंश इस साहित्य की प्राचीन भाषाएं रही हैं। इन भाषाओं की हजारों पांडुलिपियां ग्रन्थभण्डारों में उपलब्ध हुई हैं, जिनमें से अद्यावधि बहुत कम प्रकाशित हो पायी हैं । इन पांडुलिपियों में विभिन्न कालों की देश में प्रचलित लोकभाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्राकृत एवं अपभ्रंश व्याकरण से सम्मत शब्दों के अतिरिक्त कुछ विशिष्ट शब्दों का प्रयोग भी इन ग्रन्थों में हुआ है, जिन्हें देशज शब्द कहा जाता है। हेमचन्द्र ने देशी नाममालामें ऐसे अनेक शब्दों का संग्रह किया है । किन्तु उसके बाहर के भी हजारों देशी शब्द जैन साहित्य की पांडुलिपियों में प्रयुक्त हुए हैं । सम्पादकों की सूक्ष्म दृष्टि एवं भाषागत बहुज्ञता ऐसे शब्दों के अर्थ खोजने में सहायक होती है । अत: जैन साहित्य का इस प्रकार से अध्ययन करने से अन्य ग्रन्थों के सम्पादन कार्य में सहायता मिल सकती है । प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त कुछ देशज शब्द दृष्टव्य हैं
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अन्दु =जंजीर,
घडा = गोष्ठी,
फेल्ल = दरिद्र,
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बोंदि=शरीर ओम = दुर्भिक्ष
सिग्ग = परिश्रम
पांडुलिपि- सम्पादन में हर शब्द का अर्थ कोश अथवा व्याकरण की सहायता से नहीं खोजा जा सकता । प्रसंग और लोक प्रचलन को भी आधार बनाया जा सकता है ।
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