________________
૧૧૬ હસ્તપ્રતવિદ્યા અને આગમસાહિત્ય : સંશોધન અને સંપાદન
३. शब्दात्मक अंक :
प्राचीन पांडुलिपियों एवं पुरातात्विक साक्ष्यों में शब्दात्मक अंकों का प्रयोग भी देखा जाता है । सम्पादक के लिए इनका ज्ञान बहुत आवश्यक है। शब्दात्मक अंकों का यद्यपि कोई निश्चित कोष नहीं है । किन्तु प्रयोग के आधार पर उनके संकेत ग्रहण किये जा सकते हैं । एक अंक के लिए कई शब्द प्रयुक्त हुए हैं । किन्तु उदाहरण के लिए कुछ प्रयोग देखे जा सकते हैं । यथा :
पितामह, चन्द्र, वसुधा = १ नेत्र, कर्ण,
बाहु = २
लोक, काल,
वचन = ३
वेद, सागर, आश्रम = ४
बाण, इंद्रिय, पांडव = ५
रस, ऋतु, |लेश्या =६ देव = ३३, कला = ७२ आदि । शब्दात्मक अंको के प्रयोग वाली पांडुलिपियों के सम्पादन में बहुत सावधानी की आवश्यकता है, अन्यथा पंक्ति के आगे लिखा हुआ अंक ( शब्दात्मक) भी पाठ में सम्मिलित हो सकता है । इन शब्दों के ज्ञान के द्वारा तिथि आदि के निश्चय करने में भी सहायता मिलती है।
1
पर्वत, मुनि, अश्व= ७
सर्प, कुंजर, मंगल = ८ निधि, तत्व, हरि = ९
दिशा, कर्ण, प्राण = १०
नख = २०, जिन = २४
४. पांडुलिपि संशोधन के संकेत :
I
प्राचीन पांडुलिपियों को लेखक लिखकर अथवा लिखवाकर उसे फिर संशोधन की दृष्टि से पढ़ते थे । उस समय मूल पाठ में जिस प्रकार के संशोधन की आवश्यकता होती थी उसे विशेष चिह्न द्वारा अंकित कर पत्र के हाशिये में लिख दिया जाता था । पांडुलिपि- सम्पादन में इस प्रकार के संशोधनों का बड़ा महत्त्व है । जैन परम्परा में गुरु-शिष्य की अनवरत परम्परा होने के कारण ऐसे संशोधन प्रायः होते रहते थे । कुछ पांडुलिपियां स्वयं लेखक द्वारा भी संशोधित पायी जाती हैं। संशोधन के इन संकेत चिह्नों के कुछ उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य हैं
:
१.
२.
३.
४.
-
छूटे हुए पाठ को दिखाने वाले चिह्न - आदि । आकारांत मात्रादर्शक चिह्न
अन्य अक्षरसूचक चिन्ह (जैसे पओहर = पओधर )
अक्षर बदल जाने पर २-१ ( यथा चरण = चण २१ र)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org