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प्राकृत-अपभ्रंश पांडुलिपियों की सम्पादन-प्रक्रिया ११५ यथा:- के = |क, कै = |के =, को = |का, कौ - को आदि । पांडुलिपि - अन्वेषकों का कहना है कि जैन पांडुलिपियों में इसी पडी मात्रा का प्रचलन प्रायः सत्रहवीं शताब्दी तक रहा है। पाठ सम्पादन में इस पद्धति का ज्ञान बहुत आवश्यक है । अन्यथा कई शब्द अशुद्ध उतार लिए जाते हैं । यथा :--
तामानिकर = (तमोनिकर) - तामा - निकर, तरोनिकर आदि । किसलयाकामल = (किसलय कोमल) - किसलया - कामल, आदि ।
आजकल बंगला लिपि में पृष्ठमात्रा का प्रचलन है, जो संभवत: मगध की प्राकृत भाषा में लिखित प्रतियों का प्रभाव है।
२. अक्षरात्मक अंक:
प्राचीन जैन पांडुलिपियों की यह एक प्रमुख विशेषता है कि उनमें अंकों के स्थान पर या उनके साथ-साथ अक्षरात्मक अंक भी प्रयुक्त हुए हैं । यथा :
१. = नुं अथवा श्री १ =र्ग २. = न, स्त्रि
२ ८=ी ३. = म., श्री ३ ४. = वो अथवा के आदि। १०ल, २० = घा ४०= प्त ५. = क अथवा न ५०छ ६. = फ, र्फ
जिनभद्रगणि के 'जिनकल्पसूत्र' के भाष्य में मूल गाथाओं के अंक अक्षरात्मक अंको में दिए गये हैं। अन्य पांडुलिपियों के पृष्ठ संख्या में भी अथवा छनद संख्या आदि में भी इस प्रकार के अंकों का प्रयोग देखा जाता है। श्री भंवरलालजी नाहटा ने अपने लेख में इस प्रकार के अंकों के कुछ उदाहरण दिये हैं। .
इस प्रकार के अक्षरात्मक अंकों का परिचय त्रिशती नामक प्राचीन गणित ग्रन्थ में दिया गया है । उसमें एक से दस हजार तक अक्षरात्मक अंक लिखे हैं । इन अंकों की सामान्य जानकारी होने से सम्पादन - कार्य में कुछ सुगमता हो सकती है । ये अक्षरात्मक अंक संभवतः मांगलिक कारणों से प्रयुक्त हए होंगे हो सकता है कि इनके प्रयोग में गोपनीयता भी आधार रही हो।
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