________________
૧૧૮ હસ્તપ્રતવિદ્યા અને આગ સાહિત્ય: સંશોધન અને સંપાદન अतः अपरिचित शब्द को पाठान्तर में डालने का ही विकल्प नहीं है । उसके सही अर्थ को खोजने का प्रयत्न भी किया जा सकता है। ___ आधुनिक भाषाओं की पांडुलिपियों में बहुत से ऐसे शब्द प्रयुक्त मिल सकते हैं, जिनका मूल रूप संस्कृत में प्राप्त न हो । वे शब्द प्राकृत और अपभ्रंश की परम्परा से भी सीधे आ सकते हैं । क्योंकि आज भी बहुत से प्राकृत के शब्द हमारी बोलचाल की भाषा अथवा साहित्य में प्रयुक्त हो रहे हैं । इस दृष्टि से भी हिन्दी पांडुलिपियों के सम्पादन में प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं का ज्ञान उपयोगी होगा।
प्राकृत-अपभ्रंश की पांडुलिपियों की समस्त विशेषताओं को प्रदर्शित करना श्रमसाध्य और अनुभव का कार्य है । उनका सम्पादन कैसे करना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी कोई दिग्दर्शक पुस्तक लिखे जाने का प्रयत्न अभी तक नहीं हुआ है। किन्तु विगत सौ वर्षों में प्राकृत-अपभ्रंश के अनेक ग्रन्थ सम्पादित होकर प्रकाश में आये हैं । विदेशी एवं भारतीय विद्वान सम्पादकों ने इन ग्रन्थों के सम्पादन में जो पद्धतियां अपनायी हैं, वे आज सम्पादन कला की दस्तावेज के रूप में मानी जा सकती हैं । इन सम्पादित ग्रन्थों के प्राक्कथनों के अध्ययन से सम्पादन कला की कई बारीकियां सीखी जा सकती हैं । इस दृष्टि से डॉ. पी. एल. वैद्य, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, डॉ. हीरालाल जैन, मुनि श्री पुण्यविजयजी, मुनि श्री जिनविजयजी, पं. दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. एच. सी. भायाणी आदि ख्यातिप्राप्त सम्पादकों के ग्रन्थ' सम्पादन-कार्य में प्रवृत्त होने वाले विद्वान को अवश्य देखने चाहिए। और उसे बनारस, कलकत्ता, जयपुर, जोधपुर, लाडनूं अहमदाबाद, बडौदा, पूना आदि स्थानों में स्थित शोध संस्थानों में जाकर सम्पादनकला का व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए । तभी अभीष्ट ग्रन्थ-विशेष का सर्वांगीण सम्पादन-कार्य संभव है । प्राकृत-अपभ्रंश भाषा के ज्ञान के लिए अपभ्रंश अकादमी, जयपुर के पाठ्यक्रम एवं पुस्तकें भी उपयोगी हैं।
पादटीप १. अंगसुत्ताणि, भूमिका, मुनि नथमल २. स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति १.२
सत्सम्पद्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ।। १ ।। वाचनाननामकेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित् ।। २ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org