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आवश्यक होगा कि जैनोंकी ग्रन्थसंख्या जितनी सुदीर्घ है उतनी (वैदिक संप्रदाय छोड़ कर ) अन्यकी नहीं है । और उस पुस्तकसमुदायका लेख और लेख्य कैसा गम्भीर युक्तिपूर्ण, भावपूरित विशद और अगाध है । इसके विषयमें इतनाही कहदेना उचित है कि जिन्होंने सारस्वतसमुद्र में अपने मतिमन्थानको डाल कर चिरान्दोलन किया है वेही जानते हैं। तरही तो कहागया है कि
'देवीं वाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतम् । जानीते नितरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः || अर्लिङ्घित एव वानर भटैः किन्त्वस्य गंभीरता --- मापातालनिमग्नपीवरतनुर्जानाति मन्थाचलः ॥
१ सरस्वती ( अर्थात् विद्या ) नी उपासना तो घणाए लोको करे छे. पण ते बिद्यामां केवा प्रकारनो रहस्य छे तेवो तेनो सार तो निरंतर गुरुकुलना क्लेशोने सहन करवावालो एक मुरारि कविज जाणे छे. तात्पर्यबुद्धिमान् छतां पण- गुरुकुलमा रही अनेक प्रकारना क्लेशोने सहन करी निरंतर ते विद्यानो अभ्यास करतो रहे त्यार पछी ते विद्यानो सार केटलेक अंशे जाणी शके. अन्यथा नहीं । जुवो के वानरभटो बधा समुद्रनुं ओलंघन तो करी गया हता पण तेनी गंभीरतानुं प्रमाण तो पाताल सुधी पोहचीने मंथन करवावालो मेरुपर्वतज जाणी शक्यो हतो. पण केवल समुद्रनुं लंघन करवावाला ते वानरभटो जाणी शक्या न हता.
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