________________
(९२) घड्दर्शनपशुप्रायाँश्चारयजैनवाटके ॥ सज्जनों ! इस श्लोकके पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्धको सुन कर आप लोग खूब जॉनगये होंगे कि पूर्वसमय पर आपसमें विद्वानों के इसी ठठोल भी कैसे होते थे। ये महानुभाव हेमचन्द्राचार्य व्याकरणसे लेकर दशनशास्त्रपर्यन्त विषममें अप्रतिम आचार्य थे । सजनों ! जैसे कालचक्रने जैनमतके महत्वको ढांक दिया है वैसेही उसके महत्वको जानने वाले लोग भी अब नहीं रहगये । “ रज्जव साचे सर को वैरी करे बखान" यह किसी भाषाकविने बहुतही ठीक कहा है। सज्जनों ! आप जानते हो मैं-वैष्णवसंप्रदायका आचार्य हूँ यही नहीं है मैं उस संप्रदायका सर्वतोभावसे रक्षक हूँ और साथही उस्की तरफ कड़ी नज़रसे देखने वालेका दीक्षक भी हूँ तो भी भरी मजलिसमें मुझे यह कहना सत्यके कारण आवश्यक हुआ है कि जैनोंका ग्रंथसमुदाय, सारस्वत महासागर है । उस्की ग्रन्थसंख्या इतनी अधिक है कि उन ग्रन्थोंका सूचीपत्र भी एक महानिबंध हो जायगा। जिन्होंने जैनपुस्तकभण्डार देखे हैं उन्हें यह कहना
१ हा भाई-आ षदर्शनना पशुजेवा लोकोने जैनवाडामां चरावतो थको आवी रह्यो तो छु. सं०
Aims.
.
--
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org