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कल्प
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के तुं पण वेदना अर्थने जाणतो नथी ? तने पण अनूतिए कहेला 'विज्ञानघन एवैतेच्यो जूतेन्यः
सुबो इत्यादि पदो वडे परलोकने विषे संदेह , परंतु ए पदोनो अर्थे में कह्यो जे ते प्रमाणे विचार के जेथी तारो संदेह दूर थाय ॥ इति दशम गणधर ॥ | पढी मोक्षना विषयमां संदेहवाला प्रजास नामना पंमितने पण प्रजुए जे हतुं तेवं कडं के तुं पण वेदना अर्थने जाणतो नथी ? कारण के "जरामर्यं वा यदग्निहोत्रं” आ पदथी करीने मोदनो , अनाव जणाय ने, केमके जे अग्निहोत्र , ते "जरामर्य" कहेतां हमेशां करवं, एम कडं बे, अनेर तेथी करीने अग्निहोत्रनुं प्रतिपादन कर्युः अने ते अग्निहोत्रनी क्रिया तो मोदनुं कारण था। शकती नथी, केमके दोषवाली होवाथी केटलाकने वधनुं कारण थाय ने श्रने केटलाकने उप-12 कारनुं कारण थाय ने तेश्री मोदसाधक एवां अनुष्ठाननी क्रिया करवानो काल कहेलो नथी, माटे मोद डेज नहीं, ए कारणथी मोदनो अनाव प्रतीत थाय बे; तेम वली का डे के "के ब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं च, तत्र परं सत्यज्ञानं, अनंतरं ब्रह्मेति” इत्यादि पदथी मोक्षसत्तानी प्रतीति थाय . एवी रीतनो तारा मनमां संदेह बे, पण ते संदेह अयुक्त ? बे केमके “जरामर्यं वा यदग्निहोत्रं” ए पदमां “वा” शब्द "अपिना” अर्थमां ने अने ते जिन्न क्रमवालो . तेमज "जरामर्यं यावत् अग्निहोत्रं अपि कुर्यात्" एटले जे को स्वर्गादिकनो अर्थी/8
होय तेणे तो जावजीव सुधी अग्निहोत्र करवू, अने जे को निर्वाणनो अर्थी होय तेणे तो है अग्निहोत्र बोमीने निर्वाणसाधक एवं अनुष्ठान करवं; पण नियमथी “अग्निहोत्रज करवु” एम
नहीं एवो अपि शब्दनो अर्थ बे, तेथी करीने निर्वाण संबंधी अनुष्ठाननो पण काल जणाव्यो, माटे निर्वाण तो बेज ॥ इति एकादश गणधर ॥
॥ ७॥ __एवी रीते चार हजार अने चारसें ब्राह्मणोए प्रनु पासे दीक्षा लीधी. तेमांना मुख्य अगीयारने त्रिपदीना ग्रहणपूर्वक अगीयार अंग तथा चौद पूर्वनी रचना अने गणधरपदनी स्थापना थ.
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