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સ્વપ્ન શિલ્પીઓ
बस, अध्यात्मयोगी युगमहर्षि महापुरुष के अल्प शब्दों ने छगनराजजी के मन पर जादुई असर किया और उन्होंने परिवार के अन्य किसी भी सदस्य से बातचीत किए बिना तत्काल पूज्यश्री को अपने सुपुत्र की भागवती दीक्षा के लिए अपनी सम्मति प्रदान कर दी ! यह था पुण्यपुरुष के अल्पशब्दों का गज़ब प्रभाव ! और उसी समय पूज्य गुरुदेवश्री ने दीक्षा का मुहूर्त भी प्रदान कर दिया माघ शुक्ला त्रयोदशी विक्रम संवत 2033 के शुभ दिन मुमुक्षु राजमल की भागवती दीक्षा निश्चित हो गई।
पूज्य गुरुदेवश्री की ही असीम कृपा से जन्मभूमि बाली में वर्धमान तपोनिधि पू. पंन्यासप्रदर हर्षविजयजी म. के वरद हस्तों से मुमुक्षु ने भागवती दीक्षा अंगीकार की। वे अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेवश्री के अंतिम शिष्य बने और वे मुनि श्री रत्नसेनविजयजी म.सा. के नाम से पहचाने जाने लगे।
दीक्षा अंगीकार करने के बाद परम तपस्वी पू.पं. श्री हर्षविजयजी म.सा. के सान्निध्य में लगभग 3 वर्ष तक पाटण में ग्रहण व आसेवन शिक्षा अंगीकार की। संस्कृत - प्राकृत व्याकरण के साथ न्याय, काव्य, प्रकरण ग्रंथ, कर्मग्रंथ, विविध दर्शन, जैनआगम आदि का गहन अध्ययन कियां ।
प्रभावक प्रवचन शैली विक्रम संवत 2033 में उनकी भागवती दीक्षा हुई। ठीक 14 मास के बाद वर्धमान तपोनिधि पूज्य पंन्यासप्रवर श्री हर्षविजयजी म.सा. की शुभ निश्रा में वि.सं. 2034 फाल्गुण शुक्ला चतुर्दशी के दिन पाटणमें उनका सबसे पहला प्रवचन हुआ। पूज्य गुरुदेवश्री के शुभाशीष उनके साथ थे, अतः वह प्रवचन अत्यंत ही प्रभावक रहा। उसके बाद वि.सं. 2036 से उनकी पर्युषण प्रवचनमाला एवं वि.सं. 2038 में बाली से उनके चातुर्मासिक प्रवचन प्रारंभ हो गए थे वह प्रवचनगंगा आज भी निरंतर बह रही है।
श्रोताओं की अंतरंग योग्यता को परखकर शास्त्रीय पदार्थ को खूब सरल व रोचक शैली में समझाने की कला उन्हें हाँसिल हुई है। इसके द्वारा वे अनेकों के जीवनपरिवर्तन में निमित्त बने है।
प्रभावक साहित्य सर्जन वि.सं. 2038 में पूज्यश्री ने अपने स्वर्गस्थ गुरुदेवश्री के जीवन परिचय के रूप में 'वात्सल्य के महासागर' पुस्तकका आलेखन किया था, तब से उनकी लेखनयात्रा निरंतर जारी है। उनकी लेखनी में सरलता है, रोचकता है और धाराप्रवाह है। उनके द्वारा आलेखित साहित्य पाठकों के अन्तर्गत को इस प्रकार छू लेता हैं कि एक बार पुस्तक प्रारंभ करने के बाद उसे छोड़ने का मन नहीं होता। साहित्य के विविध विषयों पर उनकी लेखनी चली है, जो आज भी गतिमान है।
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परम पूज्य उपकारी गुरुदेवश्री के कालधर्म के बाद पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य भगवंत एवं समतानिधि पू. पंन्यास श्री वजसेनविजयजी म.सा. की आज्ञानुसार पाली, रतलाम, अहमदाबाद, पिंडवाड़ा, उदयपुर, जामनगर, गिरधरनगर, सुरेन्द्रनगर, थाणा, कल्याण, दादर, सायन, धुलिया, कराड़, चिंचवड स्टे, भायंदर, पूना येरवड़ा, कालाचौकी (मुंबई), श्रीपालनगर मुंबई, कर्जत (जिला रायगढ़ MS) भिवंडी आदि क्षेत्रों में चातुर्मास कर दैनिक व जाहिर प्रवचनों के माध्यम से अनेकविध आराधनाएँ कराई है।
पूज्य मुनिश्री की प्रेरणा से थाणा में 109 सिद्धितप व 160 सामुदायिक वर्षीतप की आराधनाएँ हुई थीं।
पूज्य पंन्यासजी म.सा. की अभी तक 136 पुस्तकें प्रकाशित हो चूकी हैं और अभी भी वह सर्जन यात्रा चालू ही
है।
तप साधना में पूज्य मुनि श्री अपने 32 वर्ष के संयम पर्याय में लगभग नियमित एकासना करते हैं और प्रत्येक सुद पंचमी को ज्ञान की आराधना निमित्त उपवास करते हैं।
पिंडवाड़ा, गिरधरनगर, थाणा, कल्याण, दादर, सायन, धूलिया, कराड़, भायंदर, चिंचवड़ स्टै. पूना, येरवड़ा, श्रीपालनगर तथा भिवंडी में वाचना-श्रेणी का आयोजन कर सैंकडों नवयुवकों के जीवन को संस्कारित किया है।
'अर्हद् दिव्य संदेश' मासिक के माध्यम से पूज्य मुनि श्री के चिंतनात्मक लेख प्रवचन उपदेश पिछले 18 वर्षों से नियमित प्रकाशित हो रहे हैं।
अनेकों को धर्मबोध देनेवाले पूज्य मुनिश्री रत्नसेनविजयजी म.सा. को शासनप्रभावक प्रशांतमूर्ति पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय महोदयसूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञानुसार वैशाख यदि 6 वि. सं. 2055 में चिंचवड़ (पूना) में गणिपद से अलंकृत किया गया और शासनप्रभावक पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमभूषणसूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञानुसार कार्तिक वदि 5 वि.सं. 2061 के शुभ दिन श्रीपालमगर मुंबई में पंन्यास पद से अलंकृत किया गया। वे कुशल विवेचनकार भी हैं 'सामायिक सूत्र', 'चैत्यवंदन सूत्र', 'आलोचना सूत्र', 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र', 'आनदघन चोबीसी', 'आनंदघन के पद' पू. यशोविजयजी म. की चोवीसी', 'अमृतवेल की सज्झाय आदि के ऊपर उन्होंने खूब सुंदर व सरल शैली में विवेचन भी लिखा हैं ।
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वे कुशल अवतरणकार भी हैं। जैन रामायण और
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