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________________ ૧૨૬ સ્વપ્ન શિલ્પીઓ. इनकी प्रारंभिक शिक्षा हायर सेंकडरी तक बाली में तथा सुंदर मार्गदर्शन दिया। 1st Year, B.com, का शिक्षण S.P.U. Collage फालना धार्मिक पाठशाला में राजु ने पंच प्रतिक्रमण आदि क में हुआ था। राजु को धार्मिक शिक्षण व संस्कार मिले श्रीमान् अध्ययन तो किया ही था, इसके साथ प.पू. विद्वद्वर्य मु. श्री आनंदराजजी गेमावत से। बचपन से ही सूक्ष्म व तीक्ष्ण प्रज्ञा के जितेन्द्रविजयजी म.सा. एवं प.पू. विद्वद्वर्य मु. श्र कारण व्यवहारिक शिक्षण में उनका हमेशा प्रथम स्थान रहा। ई. गुणरत्नविजयजी म.सा.की तारक निश्रा में दो ई. सन् 1974 सन् 1975 में राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय-बाली में 600 और 1975 में आयोजित 'ग्रीष्मकालीन आध्यात्मिक ज्ञान शिबिर विद्यार्थियों के बीच राजु को 'सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी' का पारितोषिक में दो बार भाग लेकर जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान, आवश्यक क्रिय मिला था। जिला-स्तरीय निबंध-वक्तृत्व आदि स्पर्धाओं में भी के सूत्र-रहस्य, जैन इतिहास, जैन भूगोल, कर्मवाद आदि क विशेष स्थान प्राप्त किया था। इसके साथ ही धार्मिक पाठशाला ज्ञान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप राजु की वैराग्य-भावना और में भी हमेंशा प्रथम स्थान रहा। तत्त्वज्ञान विद्यापीठ-पूना की दृढ़ बनी। प्रारंभिक परीक्षा में भारत भर में पहला स्थान प्राप्त किया था। वि.सं. 2031 व 2032 में पूज्य गुरुदेवश्री के बेड़ा एवं बचपन में राजु के दिल में महत्त्वाकांक्षा थी आगे चलकर लुणावा चातुर्मास में साथ रहकर ज्ञानाभ्यास किया और संयम C.A. करना, उद्योगपति या राजनेता बनना। परंतु अपने ही जीवन की ट्रेनिंग ली। डेढ़ वर्ष के अपने मुमुक्ष पर्याय में उपधान पड़ोसी, पूर्णतया स्वस्थ भीकमचंदजी की अकाल मृत्यु तथा नदी तप, वर्धमान तप का पाया एवं 12 ओली, 20 दिवसीय एक के पानी में डूबने से हुई दो बाल मित्रों की करुण मौत के दृश्य लाख नवकार जाप-साधना, पैदल-विहार के साथ साथ चार को देखकर राजु को आयुष्य की क्षणभंगुरता के प्रत्यक्ष दर्शन प्रकरण, तीन भाष्य, छ कर्मग्रंथ तत्त्वार्थ, वीतराग स्तोत्र, हुए और उसके मन में वैराग्य-भाव का बीजारोपण हुआ। योगशास्त्र, पंच सूत्र, संस्कृत की दो बुक आदि का सुंदर अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेवश्री के वचनामृत, सत्संग एवं अध्ययन किया। उनके द्वारा प्रदत्त 'शांतसुधारस' की अनित्य एवं अशरण भावना राजमल के दिल में उत्कट वैराग्य था तो दूसरी ओर के गुजराती विवेचन के स्वाध्याय तथा 'धर्मदेशना' पुस्तक में माता-पिता के अन्तर्मन में रहे मोह के बंध को तुड़वाना सरल वर्णित चार गतियों के भयंकर दुःखों का वर्णन पढ़ने से राजु काम नहीं था ! मोह के बंधन को तोड़ने में राजमल के सफल की वैराग्य भावना और दृढ़ बनती गई। मार्गदर्शक बने थे अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री एक वर्ष कॉलेज शिक्षण दरम्यान भी राजु की वैराग्य- भद्रंकरविजयजी गणिवर्य। उनका मार्गदर्शन और आशीर्वाद न भावना लेश भी खंडित नहीं हुई, बल्कि कॉलेज के साथ पूज्य होते तो शायद राजमल को सफलता नहीं मिल पाती। गुरुदेवश्री के समागम से उसकी वैराग्य-भावना तीव्र-तीव्रतर दि. 7 जनवरी 1997 के शुभ दिन मुमुक्षु राजमल अपने होती गई। पिताजी शा छगनराजजी चोपड़ा और पंडितजी हिम्मतभाई (जो वि.सं. 2030 में बाली में मुमुक्षु कमलाबहिन की भागवती बाली में साधु-साध्वीजी को संस्कृत-प्राकृत और न्याय सिखाते दीक्षा विधि का महोत्सव चल रहा था। रात्रि में संघ की ओर थे।) के साथ बाली से बस द्वारा लुणावा आए। उस समय से आयोजित मुमुक्षु के बहुमान समारोह में राजु भी उपस्थित अध्यात्मयोगी पूज्य पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. था। मुमुक्षु के वैराग्यपूर्ण संवाद आदि को सुनकर राजु के मन लुणावा में विराजमान थे। में तीव्र वैराग्य-भाव पैदा हुआ। . वंदनविधि और औपचारिक बातचीत के बाद मुमुक्ष राजु ने अपने दिल की बात पू. मुनि श्री प्रद्योतन राजमल के पिताजी का एक ही स्वर था-राजमल की दीक्षा 1विजयजी म. को कही। पूज्य मुनिराजश्री ने राजु की भावना को 2 वर्ष बाद की जाय। प्रोत्साहित किया और इस संदर्भ में विशेष मार्गदर्शन हेतु राजु उस समय भविष्यद्रष्टा पूज्यश्रीने अपना मौन तोड़ते हुए को घाणेराव में विराजमान अध्यात्मयोगी निःस्पृह शिरोमणि ____एक ही बात कहीं.....'राजु अब तैयार हो चुका हैं, अब ज्यादा पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. के पास भेजा। , | मजा देर करने जैसी नहीं हैं। अध्यात्मयोगी महापुरुष के दर्शन-वंदन कर राजु का महापुरुष के थोडे से शब्दों में भी अपूर्व शक्ति रही होती हृदय खुशी से भर गया। मानव जीवन को सफल बनाने एवं है। वे बोलते कम है और काम ज्यादा होता है। संयम की निर्मल साधना हेतु पूज्य पंन्यासजी म.सा. ने राजु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005122
Book TitleBahumukhi Pratibhaono Kirti Kalash Swapn Shilpio
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal B Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year2010
Total Pages820
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size40 MB
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