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સ્થવિરાવલી
श्री कल्पसूत्र व नंदीसूत्र कथित स्थवीरावली (थेरावली) के नामों मिले जुले मिलते है. अर्थात् इन शिलालेखों के नामों से ये दोनों नंदीसूत्र व कल्पसूत्र शास्त्र की पट्टावली स्थवीरावली भी प्रामाणित होती है. यानी शास्त्र और इतिहास दोनों परस्पर सत्य सिद्ध होते हैं.
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अंग्रेज विद्वान वुल्हर के अनुसार कंकाली टीले से प्राप्त स्तूपों में 'वोडवास्तूप' अति महत्त्व का है. पूरे भारत वर्ष का यह सबसे प्राचीन स्तूप है. इस स्तूप के शिलालेख में नंद्यावर्त उत्कीर्ण किया गया है, जो कि १८ वें तीर्थंकर अरनाथ भगवान से संबंधित है, जिसका जीर्णोद्धार कोलियगण और वैरीशाखा के श्रमण आर्य वृद्धहस्ति के उपदेश से जैन श्राविका दीना ने करवाया था. यह २ हजार वर्ष पुराना है.
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वोडवा स्तूप के विषय में "विविध जैन तीर्थ कल्प शास्त्र" में आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी म. ने लिखा है कि- मथुरा में सुपार्श्वनाथ भगवान का सुवर्णमय स्तूप भगवान श्री सुपार्श्वनाथ के शासन में उनकी उपासिका कुबेरा नामक दासी ने निर्माण करवाया था. जो जीर्ण जर्जरित होने पर पार्श्वनाथ भगवान के समय में दुबारा पुनरुद्धार किया गया था. यह वोडवा स्तूप देवनिर्मित स्तूप के नाम से सुप्रसिद्ध था.
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देवदेवीयों के एक प्राचीन स्तोत्र में भी इसका उल्लेख - "मथुरायां सुपार्श्वश्री सुपार्श्वस्तूप सेविका" इस प्रकार किया गया है. आचार्य श्री भट्टिसूरिजी म. ने फिर से ई.सन्. ८वीं शताब्दी में इस स्तूप का पुनरुद्धार करवाया था. इस देव निर्मित स्तूप का उल्लेख श्री बृहत्कल्पभाष्य तथा व्यवहारकल्पभाष्य में महत्तर श्री संघदासगणि ने (८वी सदी) किया है. महान जैनाचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ( ६वीं सदी) ने उस स्तूप में रहकर महानिशीथ सूत्र की एक जीर्ण-शीर्ण प्रत को फिरसे लिखकर विनिष्ट होने से बचाया था. वीर निर्वाण संवत् ८२७ (ई.स. की चौथी सदी) में महान जैनाचार्य स्कंदिल की अध्यक्षता में जैन श्रमणों की वाचना हुई थी मथुरा
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