SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शनानुसारे १४ १३ १२ ११ १० ७ ६ ५ ४ ३ अनंत १ अलोकाकाश २ १ अनंत सिध्दमगवंत पांच अनुतर ऊ - विश्वदर्शन - १४ राजलोक - अनंत अलोक लोकाग्रभाग WALL सिध्दशिला क वै घनोदधि वलय घो घनवात वलय लो नवातल १५ परमाधामी १० तिर्यगु जृभक मा व नि लो 'क क मध्यलोक तिच्र्च्छा लोक ८ वाणव्यंतर ८ व्यंतर १० भवनपति Jain Education International १२ अलोक दे ३ J रत्नप्रभा शर्कराप्रमा वालुकाप्रमा पंकामा धमप्रभा तमः प्रभा K तमस्तमः प्रमा नरक ? घसनाडी नव ग्रैवेयक - किल्बिषिक ५५ चर-अचर ज्योतिष चक मेरु पर्वत असंख्य द्वीप समुद्रो नरक २ नरक ३ नरक ४ अनंत 313 3 3 3 अ अलोक लो का का श नरक ५ नरक ६ १२ देव. ९ ग्रैवे., ५ अनु. के मिलाकर ८४९७०२३ विमान ६३ प्रतर (Layers) में रहे हुए है, जिसमें बीचमें इन्द्रकविमान, चारों दिशाओं में वर्तुलाकार, त्रिकोणाकार, चतुरस्त्राकार विमानों की पंक्तियों तथा ३ विदिशाओं में भिन्न भिन्न आकार के पुष्पावकीर्ण विमान है। For Private & Personal Lise Only नरक ७ पांचवें देवलोक में आई हुई कृष्णराजी के बिच में रहे हुए ९ लोकांतिक देवो के विमान. वायव्य AST उत्तर इशान ७ नरक के कुल नरकावास ८४ लाख है । ४९ प्रतर में देवलोक सदृश ही केन्द्र में इन्द्रक विमान और ८ दिशाओमें वर्तुल, त्रिकोण, चतुरखाकार नरकावास और इन पंक्तिबद्ध नरकावासों के बीच में पुष्पावकीर्ण नरकावास रहे है । www.jainvalibrary.org
SR No.004987
Book TitleJain Tattvagyan Chitravali Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages64
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy