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________________ अत्यन्त आसक्त, विशेषतः ईर्ष्यालु एवं एकांत पक्ष को अंगीकार करने के कारण भयभीत मुखवाले बने हुए दुर्जनरूपी सर्प को चूर्ण करता हैं ( वश में कर लेता है ।) ३७ हे देवी! प्राचीन कर्मों से उत्पन्न हुए आवरणोंवाली ! मनुष्यों की ऐसी मूर्खता जिसमें गर्व की अधिकता से गाढ आलस्य का टड मुद्रण हुआ है। वह लोक में तुम्हारे संकीर्तन के कारण घरों में, दीपक की किरणों से चूर्णित हुए अंधकार की तरह नष्ट हो जाती है। ३८ (हे देवी!) तुम्हारे चरण कमल रूपी वन का निरन्तर आश्रय होनेवाले (भक्त गण ), साहित्य तथा व्याकरण के रसामृत से परिपूर्ण एवं पंडितों के तर्करूपी विशाल कठोर कल्लोलों से मनोहर (ऐसी) सर्व विद्या में पारंगत होते हैं। ३९ - हे माता ! मर्त्यलोक के पंडित तुम्हारा स्मरण करने से वासरहित ( निर्मल) बनकर, नक्षत्र युक्त आकाश के ऊपर स्थित लोक में रहे हुए बृहस्पति (गुरु), बुध और शुक्र के साथ परस्पर अतिशय मान्य मित्रता प्राप्त करते हैं! (अर्थात्) मानवों की देवों के साथ एवं देवों की मानवों के साथ भी मंत्री जुड़ जाती है यह मैं जानता हूँ ।४० हे माता ! तुम्हारे स्वरूप में अचिन्त्य महिमा का स्पष्टतः प्रति भास होता है । (क्योंकि) तुम्हारी कृपा से अहा हा ! तिर्यंच (पशु) मनुष्य की प्रकृति प्राप्त करते हैं, मनुष्य मदन (देव) के समान स्वरूपवान् बनते हैं। और देव योनिरहित अवस्था प्राप्त करते हैं । ४१ हे लक्ष्मी ! तुमसे शिक्षा प्राप्त जो (मनुष्य) दोषरहित (स्यादवाद रूप) स्थान प्राप्त कर के, माता के शरीर (गर्भ) में निवास करने की चाह नहीं रखते वे तुम्हारी कृपा से मुक्ति पद प्राप्त कर के अपने आप ( स्वयमेत्र) तत्काल (आठ कर्म के) बन्धन के भय से मुक्त होते हैं। ४२ हे सरस्वती! जो बुद्धिमान तुम्हारे यह स्तोत्र का पठन करता है, उसकी बुद्धि चन्द्र की सहस्रमुखी कला की तरह निर्मल और कलंकरहित एवं सहस्रमुखी गंगा की तरह पवित्र करनेवाली और जड़ में कोई अभिप्राय न रखनेवाली ऐसी अवश्य हों जाती है ।४३ हे वाग्देवी ! (एकांतवादियों के) अहंकार को जीतनेवाला कुगुरुओं का बन्धनकर्ता, रोग-दुःख और ऋणरूपी बंधन का पराभव करने के कारण आनंदित, बहुविध - (चतुर्विध संघमें) चतुर संघ में वृद्धि प्राप्त गरिष्ठ धर्म में जो सिंह के समान, आपके द्वारा विजयी हुआ है उस सत्कार से उन्नत हुए मनुष्य के समीप स्वतंत्र तरहसे लक्ष्मी जाती है। ४४ Jain Education International अथवा हे वाग्देवी ! गुरु श्री पेमकर्ण के चरण-प्रसाद से आनंदित हुआ जो (मैं) आचार्य धर्मसिंह अभिमान को तोड़नेवाला और बहुविध चतुर संघ में तुम्हारे द्वारा विजयी हुआ उसे सत्कार से उन्नत बने हुए (ऐसे) की, स्वतन्त्र लक्ष्मी सदा सेवा करती है । ४४ । सम्पूर्णम् । ૨૨ ॥ श्री भारतीस्तोत्रम् ॥ वसंततिलका, भक्तामर प्रणत. सद्भावभासुरसुरासुरवन्द्यमाना मानासमानकलहंसविशालवाना। यानादबिन्दुकलयाकलनीयरुपा, रुपातिगाऽस्तु वरदास्फुरदात्मशक्तिः । कुन्देन्दुहारघनसार समुज्ज्वलाभा विश्राणिताश्रितजनश्रुतसारलाभा मुक्ताक्षसूत्रवरपुस्तकपद्मपाणी राज्याय सा कविकुले जिनराज वाणी।। चुडोत्तंसितचारुचन्द्रकलिकाचिद्रूप चक्रे चिरं, चेतचित्रदचातुरीचयचितं चित्तामृतं चिन्वती । चातुर्वर्ण्य चक्तिचर्यचरणाऽचण्डी चरित्राखिता, चञ्चच्चन्दनचन्द्र चर्चनवती पातु प्रभो भारती । शार्दूल. कमलाऽलङ्कृत (वर) करकमला करकमलाऽलंकृत करकमला । यासा ब्रह्मकलाकुल कमलात् श्रुतदेवी दिशतु श्रुतकमला: 11211 कमलासनकमलनेत्र मुख्यामल सुरनरवन्दितपदकमला। कमलाज क्षेत्रनेत्रनिर्वर्णन निर्जित मृगपुङ्गवकमला कमलाभवचर्या दिशतु सपर्या श्रुतव (च) व निर्यदकमला। कमला (डिक ?) तरोलविलोल कपोलकरुचिजित कमलाकरकमला युग्मम् ||३|| ||२|| जिनराजवदनपङ्कजविलासरसिका मरालवालेव । जयति जगज्जनजननी श्रुतदेवी विनमदमरजनी रजनीवरपीवरप्रवरशचीवरसिन्धुर-बन्धुरगुणनिलया। लयलीन-विलीनपीनमीनध्वजयति जनजनिता शुभविलया ॥५॥ लयतानवितानगानगायन सखिवीणा वादविनोदमनाः । मननात्मकचरिता- विदलितदुरिता जननि ! त्वं जय निर्वृजिना ||६|| ४७ For Private & Personal Use Only ||४|| टी. १. खानी हस्त सि. पत्रमां खपेला उपर भए पो, पछीना पधना संोमां लिन्नता छे, जहीं 3-9- खंडो खासा छेतेने जहले प्रत्रमा १-२-३ म અંકો છે, સળંગ અંક આપેલ ન હોવાથી શરુવાતના ૩ પદ્યો કોઈક અજ્ઞાત મુનિવરની કૃતિ લાગે છે યારે પછીના પદ્યો મુનિ શ્રી રત્ન વર્ધનમ. ની કૃતિ હોય तेम लागे छे. www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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