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________________ विपर्यय (उल्टे ) से युक्त बुद्धिवाले वाचाल तो कई लोग हैं। बहुत से नक्षत्रों वाली दिशाए (बहुत) हैं, परन्तु स्फुरित किरणों के समूहवाले सूर्य को जन्म देनेवाली दिशा तो पूर्व ही है। २२ हे सुन्दर शरीरवाली ! हे साध्वी ! (सरस्वती !) जो (मार्ग) स्वर्ग और पृथ्वी के जन्म एवं मरण का (सर्वथा अन्त) नाश करता है, वही तुम्हारे द्वारा आदिपुरुष (आदिनाथ प्रभु की उपासनासेवा करके पृथ्वी पर फैलाया गया कृपायुक्त कल्याणकारी शिवपद का मार्ग केवलियों का बताया हुआ मार्ग है, अन्य कोई नहीं । (ऐसा ) मैं जानता हूं। २३ हे वरदान देनेवाली ! (शारदे !) क्रीडा करती हुई, कृपा के निवास स्थान रूप, पवित्र विकस्वर (खिलते हुए) नेत्रकमलवाली, ( अनेक ग्रन्थों से ) परिपूर्ण हृदयवाली, अतिशय श्रेष्ठ तथा निबिड (गाठ) किरणों से युक्त, महा प्रभावशाली तुम्हारी काया को पंडित - वृन्द निर्मलज्ञान स्वरूपिणी कहते हैं । 1 २४ - हे देवी! जिसके द्वारा पुरुषोत्तम आदि पुरुष (ऋषभदेव) को स्नेही बनाया गया, तथा जिसने स्वयं तप करके समस्त विश्व को देखनेवाली महिमायुक्त केवलज्ञानता को प्रमाणरूप में सिद्ध कर दिया एवं जो विश्वकी माता जगदम्बा, जो है, सो तू ही है ऐसा मैं जानता हूँ। २५ - हे देवी! जो बढ़ते हुए फलको देनेवाला, अनेक राज्यों के लाभवाला, जगत में समस्त लोक के लिए हितकारी मार्गरूपी है और जो तीर्थंकर से उत्पन्न हुआ है, दहीं के शोषण हेतु ( घी की प्राप्त कराने वाले) मंथन - दंड के समान, भवों की परंपरा के उच्छेद के लिए तुम्हारे द्वारा जो सिद्धांत स्थापित किया गया है। उस माता को नमस्कार हो । २६ हे लक्ष्मी स्वरूपा ! इन्दिरा ! तुम वही गुणवाली हो। इस कारण मध्या के वक्त विहरण करनेवाले सूर्य को तेज में जैसे दिखाई नहीं देता, वैसे तुम्हारे विषयमें भी जिनका चारित्र इष्ट (प्रिय) है ऐसे मुनियों को एवं अन्य चतुरजनों को स्वप्नांतर में भी कभी अवगुण का लेश भी दिखाई नहीं देता। २७ हे (श्रुत देवता !) तुम्हारे स्तनों के समीप रहनेवाले हार के मध्यभाग में स्थित कौस्तुभ (नामक) रत्न, जो कि उदयाचल एवं अस्ताचल के निकट जाते हुए सूर्यमंडल के समान (गोल) है वह (रत्न) यहाँ तुम्हारे शरीर की शाश्वतशोभा को हजारगुनी करता है। इसलिए तू वंदनीय है। २८ हे निःस्पृहा सरस्वती ! जैसे उच्च उदयगिरि पर्वत पर रहे हुए सूर्य की किरणें, विश्वव्यापी अन्धकार का नाश करता है वैसे तुम्हारी वाणी के विलास प्रखर विद्या के विनोद (आनन्द) युक्त विद्वानों Jain Education International की जिह्वा के अग्रभाग पर बसा हुआ, अज्ञान मात्र रूपी अंधकार का विनाश करते हैं। २९ हे सुन्दरमुखवाली ! (सरस्वती !) प्रथम तो संकटोंसे व्याप्त नागलोक और पृथ्वीलोक रूपी दोनों पृथ्वीतलों को पवित्र करके उज्ज्वल कलश के समान यह जो तुम्हारी कीर्ति है, सो महिमाओं, की अतिशयता से मानों सुमेरु के सुवर्णमय तट का उल्लंघन करती हो ऐसे अब स्वर्गलोक को श्वेत बना रही है । ३० हे जगदंबे ! हे ज्ञानवती! तुम्हारे शरीर (पेट) पर रहा हुआ और त्रिभुवन के परमेश्वरत्व (स्वामित्व) का कथन करनेवाला तुम्हारा त्रिवलीका मार्ग (गंगा, यमुना, और सरस्वती रूपी) त्रिवेणी संगम की तरह रोमरूपी कल्लोलों से जगत को पवित्र करता है, विशेष शोभा देता है। ३१ हे साध्वी! जहाँ तू स्वयं ही भाष्य की उक्ति और युक्तियों से गहन शास्त्ररूपी सरोवरों की रचना करती है वहाँ सचमुच पंडित वृन्द सुन्दर एवं प्रचुर वर्ण युक्ति वाक्यरूपी सुवर्णमय कमलों की सृष्टि करते हैं, हम ऐसा जानते है । ३२ हे ब्राह्मी ! तुम्हारी वाणी वैभव रचना के द्वारा जो अत्यन्त मनोहर है वह, जैसा विजयवान है वैसा अन्य का नहीं है (क्योंकि) चन्द्र और सूर्य से भी बढकर तुम्हारे कुंडलों की कांति जितनी है उतनी कांति उदित हुए ग्रहों के समुदाय की कहाँ से हो ?.. 33 हे कल्याणि ! इन्द्र के भय की भी अवगणना करनेवाले जिस शंख नामक दैत्यने ब्रह्मा के पास से रहस्यात्मक (चार) वेदों को बलपूर्वक ग्रहण कर के तीव्र क्रोधसे उन्हें समुद्र में छिपा दिया उस भयंकर दैत्य को देख कर (भी) तुम्हारे सेवकों को भय नहीं होता। ३४ हे कल्याणि ! गरजते हुए मेघों के समान (श्याम) शरीर वाले गजेन्द्र (हाथी) के विस्तीर्ण कुंभ के आलिंगन हेतु एवं विजय प्राप्त करने के लिए उस पर आरूढ एवं भूमि पर युद्ध करने के लिए जिसके अव तथा पदातियों की सेना कटिबद्ध हो रही हो ऐसा शत्रुभी तेरे चरण कमलों का आश्रय लेनेवाले को पीड़ा नहीं दे सकता। ३५ (हे भद्रे !) मांस, रक्त, अस्थि, रस, वीर्य, लज्जाशील मज्जा (चरबी) और स्नायु इन (सात धातुओं) से उत्पन्न शरीर में पित्त, वायु और कफ आदि विकारों से चपल बन गये हैं अवयव जिससे, ऐसी व्याधिरूपी समस्त अग्नि को तुम्हारे नाम के कीर्तन रूपी जल शांत करता है। ३६ जिस पुरुष के हृदय में तुम्हारे नामरूपी सर्प को वशमें करने की जड़ी-बूटी है वह निर्भय चित्तवाला होकर असत्य प्रलापों में ४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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