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________________ की हुई सूर्य की किरणों से रात्रिका अंधकार छिन्न-भिन्न हो जाता है। जिस तरह कमल का आश्रय लेनेवाला जल-बिन्दु अवश्य मुक्ताफल (मोती) की प्रभा प्राप्त करता है, उसी तरह हे सरस्वती ! तुम्हारे चरण कमल का आश्रय प्राप्त किया हुआ यह (कर्ता) श्री हर्ष, माथ, उत्तम भारवि कालिदास, वाल्मीकि, पाणिनि मम्मट (आदि) जैसे महाकवियों की तुलना प्राप्त करता है। ८ , मनोहर देशवाली है सरस्वती! विद्यारूपी स्त्री के रसिक ज्ञान की जिन्हें अभिलाषा है ऐसे एवं शुभदृष्टि वाले, सज्जनों के चित्त तुम्हारे में आनन्द पाते हैं, उसी तरह सरोवर में विकसित होनेवाले पद्म, नूतन उदयवाली (प्रातः कालीन) सूर्य की प्रभा में आनन्द पाते हैं - अर्थात सूर्योदय होने से वे पद्म खिल उठते हैं। ९ - हे कल्याणिनी ! तुम्हारे स्तवन का पाठ करने की अभिलाषा रखनेवाले पंडितों को क्या तुम समान ज्ञानी नहीं बना देती ? ( अर्थात् बनाती ही हो ) जो उपकार करने को महान विचार वाला है, ऐसा जो व्यक्ति जो यहीं पुण्य के अद्वितीय कारण रूप सम्पत्ति से आश्रय लेनेवाले को सेवा करते है उसे क्या वह अपने बराबर ( धनवान ) नहीं बनाता ? (बनाता है।) १० तुम्हारे स्तवनरूपी अमृत के रस का रसपूर्वक पान करने के बाद पंडित नूतन अमृत रस का भा आदर नहीं करते । (क्योंकि) योग्य क्षीरसमुद्र का (दूध से बढकर मधुर ) जल प्राप्त करने के बाद (लवण) समुद्र के लवण पानी का मन से भी आस्वाद लेने कौन चाहेगा ? ११ सती ! हे वरदायिनी ! तुम्हारे समान दूसरा सारस्वत रूप है। ही नहीं, वह तुम्हारा एक मात्र रूप भक्तों में विशेष भेद पाने के कारण अनेक है। फलतः जैन लोग तुझे साधुस्वरूपी मानते हैं एवं दूसरे तुमको 'भवानी' कहते हैं। १२ हे श्रुतदेवता ! बहुत किरणोंवाले - तुम्हारे दो दिव्य कुंडल सूर्य और चन्द्र के मंडल की सचमुच विडंबना करते हैं, ऐसा मैं मानता हूँ । सूर्यमंडल रात को नेत्रों के लिए अगोचर होता है, एवं चन्द्र मंडल दिन को पलाश के पके हुए (सूखे पत्ते जैसा (निस्तेज ) हो जाता है। १३ हे माता ! तू मेरी रक्षा कर! (क्योंकि) दोष, आकाश-वायुजल - अग्नि एवं पृथ्वी के समूह के द्वारा शरीर का आश्रय लेते हैं । वह अपने शरीर में से उत्पन्न हुए प्रकृष्ट हर्ष से विमुख उन मूर्खता आदि दोषों को तुम्हारे बिना कौन इच्छानुसार दूर कर सकता है ? ( अर्थात अन्य कोई नहीं कर सकता ।) १४ Jain Education International हे पापरहित सती शारदे! यह स्तोत्र में आपक्षी से प्राप्त किया हुआ सत्यवती (सीता) के व्रत के समान विशाल वरदान हम जैसों को, विकार के मार्ग में प्राप्त नहीं हुआ इस मे क्या आश्चर्य ? (क्योंकि) इन्द्र सम्बन्धी मेरु पर्वत का शिखर कभी चलायमान होता है भला? (नहीं।) १५ हे सती! तुम्हारे द्वारा अद्वितीय शास्त्ररूपी गृह का निर्माण कर के जगत प्रकाश अपूर्वज्ञानरूपी दीपक को प्रकट किया, सो तुम स्वभाव से उत्कृष्ट, तपोमय कृपाण से पापरूपी गुच्छोंको काटनेवाले मुनियों द्वारा गायी जाती हो- ( तुम्हारी स्तुति की जाती है ।) १६ (हे सती!) जिसने मेरु पर्वत का अतिक्रमण किया है, बृहस्पति के लिए भी प्रशंसा करने योग्य जिसके वचनों की महिमा है, तथा जिस के शरीर का अतिमहान एवं सूर्य से भी अधिक तेज- ये दोनों गणधर लोक में स्थित हैं, वह स्वमत (के विषय) में ज्ञानादि लक्ष्मी के उत्पत्ति स्थान रूप है एवं सर्वोत्तम कांतिवाली ऐसी तू शाती है । १७ हे सुन्दर वदनवाली (सरस्वती) ! जिसमें (अकारादि बावन) अक्षर स्पष्ट हैं, ऐसा सुगंधित, सुन्दर भहिवाला, भली भांति वृद्धिंगत शोभायुक्त, रसिकजनों को प्रिय, बार बार गाया जानेवाले पंचम (राग) से मनोहर, जगत का अपूर्व (विशेषतः) प्रकाश करनेवाला एवं असाधारण चन्द्र के मंडल जैसा तुम्हारा मुख कमल अतिशय शोभायमान है। १८ हे चन्द्रवदना ! (शारदा!) तुम्हारे अधरों से झरती अमृत वर्षा सेसींचा गया जगत शीतलता और समस्त (समृद्धि - रस और सिद्धिरूपी) अवयवों का सम्पादन करानेवाली, प्राप्ति यहीं कर लेता है; तो फिर जलके भारसे नम्र बने हुए झुके हुए बादलों का क्या काम है ? १९ - हे माता ! मेरा मन तुम में रमता है, किन्तु आपश्री से रहित चतुर मुग्धाओं में नहीं (रत्न परीक्षक का मन), अकृत (जिसका मूल्यांकन न हो सके मूल्यवाले, प्रभायुक्त जातिवंत (उच्चकोटिके) रत्न में रमता है, लेकिन उतना किरणों से व्याप्त हुए काँच के टुकड़े में नहीं ही रमता । २० हे (अष्ट कर्म के श्रम को हरनेवाली) श्रमणी ! कोई मनस्वी (पाखंडी) भवान्तर में भी मेरे मन को स्यादवादी (तीर्थंकरों) के (नैगमादि) गंभीर नय से भ्रष्ट (न) करे अतः निशय एवं व्यवहार की योजना एक स्थान पर करके मैं तुम में अपना मन निश्चल बनाता हूँ । २१ हे उज्ज्वल देहधारिणी ! गौरांगी ! तुम्हीं सदा सम्यग् ज्ञान प्राप्त करती हो । ( अर्थात् तुम्हारा ही सम्यग्ज्ञान है । संशय तथा ४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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