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________________ हे सरस्वती ! श्रवणों (कानों)को सुखदेनेवाले, गुणों से भरे, तुम्हारे इस स्तोत्र का जो ध्यान करते हैं उनको गायें, हाथी-घोडे, वगैरह प्राणि-समूह के स्थान, मनष्यों से व्याप्त, सजावट से शोभित, अत्यधिक तेज और कांतिवाली श्रेष्ठ दीपकों से रात के अंधकार को दूर करनेवाली, आपके तेज से युक्त उत्कृष्ट दीवाली का पर्व होता जो कुंद के फूल, चन्द्र की प्रभाकी किरणों के समान बहुत चपल शोभावाली, श्वेत वस्त्रो से ढंके हुए अंगोंवाली, जो वीणावाले हाथसे मनोहर (संगीत) रचनावाली, आदरणीय जनों की सेवा के द्वारा पूजनीय, जो ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर, विष्णु आदि देवों के देदीप्यमान चरण कमल के स्थानवाली, परमसुख करनेवाली और विघ्नों को छेदनेवाली (है) सो शारदादेवी मेरी भली भाँति रक्षा करे। ७ जो आनंदो के आनन्द के बीज रूप, चोरों के भय का हरण करनेवाली, विद्या का ही एकदान देनेवाली, जोधन्य श्रेष्ठ रूपवाली, कुबेर जिसके चरणों में नमस्कार करते है, जो तेज से प्रकाशमान मुखवाली, रंभा(अप्सरा) के रूप से बढकर सुन्दर है, चिंतामणि रत्न से भी मनोहर, आनन्द-प्रमोद से नृत्य करनेवाली, हाथियों के गण्डस्थल के समान शोभावाले, स्तनयुग्म के स्पन्दन से भरे चोंसठ लड़ियों से युक्त हारवाली है। जो सुन्दर ललाट में मनोहर तिलक के चिह्नवाली, कुंडलों से व्याप्त कानवाली, छोटे बडे चमकदार हारोवाली, प्रणाम करते हुए भक्तोवाली, मोती पहनी हुई नासिकावाली, चंद्र-सूर्य-नक्षत्रों की श्रेणीसे बने हुए, हाथ में सुशोभित कंकण और स्वर्ण के वलयवाली, 'किन किन' करती करधनी एवं मेखला से अच्छी तरह बँधी हुई कमरवाली, एवं चरणों में नूपुर की ध्वनिवाली है। चन्द्रके समान मुखवाली, सूर्य के जैसे तेजवाली, सुवर्णकुंभ को जीतनेवाले सुन्दर स्तन रूपी द्वीपोंवाली, बिंब के समान (लाल) होठवाली, लाल हाथवाली, कमल की पंखुडी के समान लोचनवाली, कोमल बाहुवाली प्रसिद्ध, हाथी की तूंढ के समान दो जंघाओंवाली, चरणों के नखों की कांति से आकाश की नक्षत्रमाला को प्रकाशित करनेवाली, वह अत्यन्त प्रसन्न हुई शारदा मुझे सदा ही इच्छित वस्तु प्रदान करे। हे माता ! तुम्हारे नामरूपी मंत्र के स्मरण में जो भली भाँति मग्न रहते हैं उन (भक्तो) का क्षुद्र (तुच्छ)जीवों आदि से पीड़ा, युद्ध, अग्नि, हाथी, सिंह, पेट की पीडा, जलचर , चोर, दावानल, सर्प, समुद्री तूफान, दारुण विपत्तियों के समूह का आक्रमण, रोग, शत्रु, दुष्ट, भूत-प्रेत वगैरह एवं यक्ष आदि दुःख, चोट, बन्धनों की उत्पत्ति का क्षय हो। मदोन्मत्त हाथियो के जबरदस्त घंटारव से दिग्गजों (दिशाओं के हाथियों) के कान के भीतरी भाग को बहरा बनानेवाली, हिन हिनानेकी जोरदार आवाज करते हुए घोडों के तेज, पवन को जीतनेवाले, वेग के अभिमान से अधिक गुणवाली, बड़े महलों की पंक्ति के देदीप्यमान, प्रचुर धन से भरे मध्यभागो (भंडारों) और संगीत से मनोहर संपत्तियाँ उनके होती हैं जो हररोज हर्ष पूर्वक इस संस्तवन का स्मरण करते है। जो अत्यन्त निर्मल मतिमान आपके गंभीरतापूर्ण, सज्जना को अति प्रिय, अनेक प्रकार के बहुत उत्तम शब्दरूपी पुष्पों से युक्त स्तवन को कंठ में धारण करता है उस ज्ञान लक्ष्मी युक्त, ध्यान से गाढ चित्तवाले, सजन पुरुष को लोक में गौरी-गंगा, उर्वशी जैसी, तुम्हारे पवित्र चरण-कमलों में मँडराती भ्रमरी के समान, उत्तम वरदानयुक्त वाणी प्राप्त होती है। जो उत्तम योगियों के आसन में रहे हए, लाल वर्णसे देदीप्यमान तुम्हारे चरण कमलों में मँडराते भ्रमरों के समान, हृदय कमल में शारदा देवी के 'ओम् हाँ ह्रीं' जाप मंत्र का स्मरण करते है, वे बुद्धि, संतोष, उत्तम पोषण एवं जय-विजय से भरे हुए पुरुष इस लोक में कल्याण को प्राप्त करते हैं। हे माता तुम उन मूों की जड़ता को जला डालो और उस हर एक को बुद्धि प्रदान करो। १५ तुम्हारी वेणी द्वारा जीता हुआ चतुर शेषनाग पाताल में चला गया, इस भुवन में तुम्हारे मुख से अच्छीतरह पराजित हुआ चन्द्र आकाश में भ्रमण करता है, और तुम्हारे लोचनों से तिरस्कृत हरिणने वन में वास ले लिया, एवं तुम्हारी कमर द्वारा जीता गया सिंह- शीघ्र भयभीत होकर गुफा में प्रविष्ट हो गया। तुम्हारे ध्यानरूपी कल्पवृक्ष से कवीश्वर माघने विजय प्राप्त की। तुम्हारी अति सेवा से श्री कालिदास अच्छी तरह प्राप्त हुए वरदानवाले हए, विद्वत्ता के कारण राजाओं के लिए भी पूज्य-पाद ऐसे हेमचन्द्राचार्य एवं बप्पट्टि सूरि.. आपकी शक्ति के वश के कारण भूमंडल में वे प्राप्त कीर्ति वाले बने। श्री विजय प्रभसूरि से प्राप्त महिमा की कान्ति के प्रभाव से अद्भुत बने हए, विद्वानों के द्वारा प्रसन्न हई सभाओं की श्रेणि से पूजे गये, क्रीडापूर्वक विद्यारूपी स्त्रीयों से पूजित, अपने शिष्यों की भक्ति से युक्त हुए लक्ष्मीविजय द्वारा भलीभाँति सेवित चरणों वाले पंडितों में इन्द्र के समान श्री हर्ष विजय मुनि प्रसन्न हो। १८ इस तरह ख्यातिप्राप्त, प्रकट किये गये वैभववाला, विविध प्रकार के अक्षरों से शोभित, दुःखों के समूह को काटने के लिए इस पवित्र संपूर्ण स्तोत्र को सत्रह सौ बासठ के वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन आनन्द के उत्कर्ष से आकर्षित एवं प्रसन्न मन वाले, भक्ति से नम्र हुए मैं लक्ष्मीविजय' ने बनाया। ३८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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