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प्रकाशमान चंद्रकिरण जैसी उज्ज्वल मोती की अक्षमाला आपके हाथमें शोभा देती है। योगीजनो की चक्षुपंक्तिओं के लिए देदीप्यमान चंद्रिका समान हो। जिसको देखकर मुनिजन हर्ष पातें हैं ।
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हे भारतीदेवी ! मेरे शीघ्र बढ़ते अनेक पापों के नाश के लिए और ज्ञान प्रदान के लिए आप सुयोग्य है । कमल पर शयन करनेवाली ! नमन करनेवालों के संसार के पाप (पातक) को दूर करे ।
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हे माता ! उत्कृष्ट प्रभावी अनेक पुस्तकों के अभ्यासी पुरुष द्वारा शोभायमान- हस्तवाली ( आप का ) ध्यान किया गया है। उत्तम पुस्तक द्वारा आप श्रेष्ठ प्रभाववाली हो। (आप) विद्यारूपी अमृत के पूर से दुःखों को अत्यंत दूर करनेवाली हो ।
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हे माता ! पवित्र मनुष्य द्वारा हर्षपूर्वक तुम्हें (जो ) प्रणाम कीये जाते हैं। पृथ्वी पर उनकी कीर्ति और प्रताप (अत्यंत ) उत्पन्न होने से दिव्य देवलोक में (भी) समा नहीं पाते।
जो मनुष्य यथा समय तेरे चरणकमल की सेवा करते हैं, वे (अपने) प्रकाश से अल्प मानवालों को सूर्य की तरह करते हैं और वे विद्वानों की गोष्ठी में प्रवेश करके स्वेच्छा से सूर्यवत् तेजस्वी को भी अल्प मानवाले करते हैं।
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हे माता ! (आपकी) प्रशंसा द्वारा मनुष्य आपके चरण के प्रताप से चित्रालेखित सुंदर ऊँचे वेष और सन्मानवाले हो ऐसे संपत्ति के तेज द्वारा प्रसन्न राजा हो जाता है ।
हे चन्द्रतुल्य कांतिवाली, श्वेत वस्त्रधारी प्रियदर्शिनी तेरी मूर्ति की आराधना करके मनुष्य नीतिशास्त्र में अग्रगण्य और दोषरूपी अंधकार में सूर्यस्वरूप तेजस्वी राजा होता है।
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नतमस्तक द्वारा पूजित आपका जिसने सर्वतीर्थजल द्वारा अनुष्ठान किया है, वह सभी को जीतनेवाले मस्तक ने मानपूर्वक अपनी बुद्धि से मिथ्यावादीओं को कुचल दीये है ।
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नीरस और कलहकारी पंक्तिरूप पंडितों के मुख को अपनी प्रीतिपूर्वक चपल दृष्टि से ही शमानेवाली (बंध करनेवाली ) ऐसी सर्वज्ञ भगवंत सुंदर मुखरूपी कमल के अंतभांग में बसनेवाली प्रसिद्ध यशवाली श्रुतदेवता हमें प्रसन्न करें ।
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प्रगाढभक्ति और जडतानिरोधक वाणी के समूह से (देवी की ) संपूर्ण स्तुति की गई है। जिनप्रभ सूरि द्वारा वर्णित वह वाणीकी देवता, यह बालक दयापात्र है, ऐसा सोचकर मेरे पर प्रसन्नता से विकसित दृष्टि को स्थापित करें।
। सम्पूर्णम् ।
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॥ श्री जिनप्रभसूरि विरचितमन्त्रगर्भितशारदास्तवनम् ॥ पाटण हे. ज्ञा. भं. प्रत नं. - ३१११, ८२५३, ८२६३ रथोद्धता महामणि मपि.......
ॐ नमस्त्रिदशवन्दितक्रमे ! सर्वविद्वज्जनपद्मभूि बुद्धिमान्द्यकदली' दलक्रियाशस्त्रि ! तुभ्यमधिदेवते गिराम् ॥१॥
कुर्वते नभसि शोणरोचिषो भारति ! क्रमनखांशवस्तव । नम्रनाकिमुकुटांशु मिश्रिता ऐन्द्रकार्मुकपरम्परामिव
दत्तहीन्दु-कमलश्रियो मुखं यैर्व्यलोकि तव देवि सादरम् । ते विविक्तकवितानिकेतनं के न भारति! भवन्ति भूतले
श्रीन्द्रमुख्य-विबुधार्चित क्रमे ! ये श्रयन्ति भवतीं तरीमिव । ते जगजननि जावारिधिं निस्तरन्ति तरसा रसास्पृशः
द्रव्यभावतिमिरापनोदिनीं तावकीनवदनेन्दुचन्द्रिकाम् । यस्य लोचनचकोरकद्वयी पीयते भुवि स एष पुण्यभाक्
विश्व-विश्वभुवनैकदीपिके ! नेमुषां मुषितमोहविप्लवे । भक्तिनिर्भरकवीन्द्रवन्दिते ! तुभ्यमस्तु गिरिदेवते नमः
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विदङ्गकमिदं त्वदर्पितस्नेहमन्थरदृशा तरङ्गितम् । वर्णमात्रवदनाक्षमोऽप्यहं स्वं कृतार्थमवयामि निश्चितम् ||६|| मौक्तिकाक्ष वलयाब्जकच्छपी पुस्तकाङ्कितकरोपशोभिते । पद्मवासिनि ! हिमोज्ज्वलाहि ! वाग्वादिनि । प्रभव में भवच्छिदे
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उदार सारस्वतमन्त्रगर्भितं जिनप्रभाचार्यकृतं पठन्ति ये । वाग्देवतायाः स्फुटमेतदष्टकं भवन्ति तेषां मधुरोज्ज्वला गिरः ||९|| उपजाति.
इति स्तवनं सम्पूर्णम् ।
टी. १. दली । २. टांस्त्र । ३. क्रमां । ४. स्पृशाः । ५. नो । ६. नेमुषा । ७. स्फुरन्ति ।
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