________________
जाय वैसी है, वह लोगों द्वारा पूजित, श्रेष्ठ देवी मानसर जैसे मेरे मनमें सदा रमण करें।
जो मनुष्य निरंतर मानसर रूपी ध्यानसे, इस अष्टक को स्पष्ट उच्चार से पठता है उसे निरंतर उत्तम संपत्ति प्राप्त होती है।
। संपूर्णम्।
१3 श्री जिनप्रभसूरिविरचितं श्रीशारदास्तोत्रम् । उपजाति, संसार दावानल.
स्वामिनी, मंगल करनेवाली, ह्रीं क्लीं ब्ली ऐसे अंतिम (आखरी) पदवाली, उत्तम गुणवती, जिस (देवी) से लक्ष्मी की उत्पत्ति होती है, ऐसी यह वषट् विद्या इन्द्र और बृहस्पति तुल्य करनेवाली है। ऐसी वाचा की में स्तुति करता हूँ।
ॐ कर्णस्वरूपा देवी ! कानमें उत्तम कर्णकुण्डल से शोभायमान देहवती होने से कर्णेश्वरी, ह्रीं स्वाहा यह अंत पदस्वरूपा, सभी विपत्तिओं की छेदिका, संपत्तिओं की स्थानभूता, संसार सागर से पार करानेवाली, शुभस्वरूपा, विद्या (ऐसे) नामवाली (देवी) का विजय हो, जिसका शिवपुर वासित देवीओं में आभूषणरूप स्थान है।
सर्व आचारों (व्यवहारों) में विचरनेवाली, भवसमुद्र में से मनुष्यों को पार करनेवाली, वाणीरूपी नौका सम, उत्तम वीणा
और बंसरी का झण-डाण नाद करनेवाली, अतिसौभाग्यवती, दःख रूपी पर्वतों कों चूरित (विदारित) करने में चतुर, महागुणसमूहवती, न्याय में प्रवीण और निर्मलवाणीवती (वाली) निपुणा जैनी देवी निश्चित पवित्र करो।
ॐ ह्रीं बीजमुखवाली, शत्रुनाशिनि, अच्छी तरह सेवित, सन्मुख बनी हुई, ऐं क्लीं ह्रीं (मंत्राक्षरो) सह, सुरेन्द्रों द्वारा पूजित, विद्वद्जनो की हितस्वरूपा, जिसकी प्रगटतया विद्या विस्फुरित होती है, विशुद्ध मतिवाली, हित (कल्याण) में रतिवाली, वह, जिनेश्वर के वज्रमुखमें जिह्वा पर इस वज्र लल नामें तल्लीन मुझे लीन करो।
ॐ अरिहंत के मुखकमलमें बसी हुई, शुभस्वरूपा हजारों ज्वालातुल्य किरणों से शोभित, पापों का अत्यंत क्षय करनेवाली, श्रतधारित्री ! मेरे पापों को त्वरित जलाती है। क्षाँ क्षी हूं ऐसे बीजमंत्रो द्वारा दूध जैसी उज्ज्वल, वं वं व हं ऐसे मन्त्र से अपने भक्तों के पाप हरनेवाली और यदि संसार में श्रीवाग्देवता मंत्रों द्वारा अमृत में से उत्पन्न हुई है, तो मेरे मानस (चित्त) में उत्पन्न हो। ६ ____एक हाथ में आनंददायक पुस्तक तथा दूसरे हाथ में कमल, तीसरे हाथ में लोगों को अत्यंत सुखदायी वरदान देनेवाली मुद्रा, (चौथे हाथ में) श्रेष्ठ सम्यग्ज्ञान की मुद्राधारिका, अपने भक्तो के लिए कोमल कमल तंतुओं के कंदसम शोभित, श्रेष्ठ क्रीडापूर्ण चपलतावाले (प्रत्येक) हाथको धारण करनेवाली प्रसिद्ध श्रुतदेवता, मनुष्यों के सुख और कल्याण को करें।
गमन की इच्छा से जो यह (माता) मेरे द्वारा धारण की गई है (ऐसा) मैं हंस हूँ इस प्रकार वह अत्यंत गर्व धरता है। जो हर यंत्रमें अत्यंत उज्ज्वलता से प्रकट है, वह माता भ्रमण का नाश करनेवाली देवी ही है। श्रेष्ठ सम्माननीय मोक्ष की देवी (स्तोत्र करनेवाली साध्वी शिवार्या) भुवनधात्री (होने से) जो पृथ्वी द्वारा कष्ट से धारण की
वाग्देवते भक्तिमतां स्वशक्ति-कलापवित्रा सितविग्रहा मे। बोधं विशुद्धं भवति विधत्तां कलापवि-वासित-विग्रहा मे ॥१॥ अङ्कप्रवीणा कलहं सपत्राकृतस्मरेणाऽऽनमतां निहन्तुम् । अङ्कप्रवीणा कलहंसपत्रा सरस्वती शश्वदपोहतां वः | ब्राह्मी विजेषीष्ट विनिद्रकुन्दप्रभावदाता घनगर्जितस्य। स्वरेण जैत्री ऋतुना स्वकीयप्रभाऽवदाता घनगर्जितस्य ।। मुक्ताक्षमाला लसदौषधीशाऽभिशूज्ज्वला भाति करे त्वदीये। मुक्ताक्षमालालसदौषधीशा यां प्रेक्ष्य भेजे मुनयोऽपि हर्षम् ॥४॥ ज्ञानं प्रदातुं प्रवणा ममाऽतिशयालुनानाभवपातकानि । त्वं नेमुषां भारति ! पुण्डरीक-शया लुनाना भवपातकानि ।।५।। प्रौढप्रभावाऽसमपुस्तकेन ध्याताऽसि येनाऽम्ब विराजिहस्ता। प्रौढप्रभावासमपुस्तकेन विद्या-सुधापूरसुदूर-दुःखा ॥६॥ तुभ्यं प्रणाम: क्रियतेऽनघेन मरालयेन प्रमदेन मातः । कीर्तिप्रतापौ भुवि तस्य नमेऽमरालये न प्रमदेन मात: रुच्या रविंदभ्रमदं करोति वेलं यदि योऽर्चति तेऽङ्घियुग्मम् । रुच्याऽरविन्दभ्रमदं कराति स स्वस्य गोष्ठी विदुषां प्रविश्य ।।८।। पादप्रसादात्तव रूपसम्पल्लेखाभिरामोदितमानवेशः। भवेन्नरः सूक्तिभिरम्ब चित्रोल्लेखाभिरामो दितमानवेश: ॥१|| सितां शुकान्ते नयनाभिरामां मूर्ति समाराध्य भवेन्मनुप्यः।। सितांशुकान्ते नयनाऽभिरामाऽन्धकारसूर्य: क्षितिपाऽवतंसः।।१०।। येन स्थितं त्वामन सर्वतीय: सभाजितामानतमस्तकेन। दुर्वादिनां निर्दलितं नरेन्द्र - सभाजिता मानत मस्तकेन ॥११।। सर्वज्ञवक्त्रवरतामरसाकलीनामाली घ्नती प्रणयमन्थरया दृशैव । सर्वज्ञवावरतामरसाङ्कलीना, प्रीणातु विश्रुतयशाः श्रुतदेवता नः
॥१२॥ वसंत.
२४ For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org