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________________ ११ अनुवाद १२ साध्वीशिवार्याविरचितपठित सिद्धसारस्वतस्तवः। पाटण प्रत नं. १४०८३ - १४०५२ तथा सरस्वती कल्पमांथी शार्दूल. - स्नातस्याप्रतिमस्य...... हे भारतीदेवी ! श्रद्धापूर्वक समाराधित होने पर जगत के लोगों को सम्यग्-ज्ञान आदि जयलक्ष्मी प्रदान करनेवाली हे माता ! तेरी जय हो। वरदमुद्रा, वीणा, माला एवं पुस्तक को धारण करनेवाले चार बाहुवाली ! हंस वाहन वाली; इन्द्रों द्वारा आश्रय के लिए स्तुति की जानेवाली, २. श्रीसूरिमंत्र के प्रथम विद्यापीठ के स्थान पर रहनेवाली; श्रीगौतमस्वामी के चरणकमल की सेवा करनेवाली हंसी समान,३. श्रीजिनेन्द्र के मुखकमल में विलासपूर्वक तुम सदैव रहती हो एवं जिनागमरूपी अमृतसागर के बीच विराजित चन्द्र के समान कान्तिमती तुम शोभायमान हो। कवियों के हृदय की लक्ष्मीरूप; क्रीडापूर्वक प्रबोधन कराने में सूर्यप्रभा समान (हे देवी!), भगाती ! तुम त्वरासे प्रसन्न हो (एवं) हे भारती ! मेरा मनोवांछित प्रदान कर। हे विश्वदेवता ! ऐं नम: - आदि मंत्रो के द्वारा मैं आराधना कर सकता हूँ। अरुणोदय की मणिलता समान देदीप्यमान कांति को जीतनेवाली एवं स्वप्रभाव से सुंदर सौभाग्यवाली तुम विजयी व्याप्ताऽनन्त-समस्तलोकनिकरैङ्कारा समस्ता स्थिरा, याऽऽराध्या गुरुभिर्गुरोरपि गुरुदेवैस्तु या वन्द्यते। देवानामपि देवता वितरतां वाग्देवता देवता, स्वाहान्तः क्षिप ॐ यतः स्तवमुखं यस्याः स मन्त्रोवरः ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीं प्रथमा प्रसिद्धमहिमा सन्तप्तचित्ते हिमा, स्तौँ ऐं मध्यहिता जगत्त्रयहिता सर्वज्ञनाथा हिता। ह्रीं क्लीं ब्ली चरमागुणानुपरमा जायेत यस्या रमा, विद्यैषा वषडिन्द्रगीष्पतिकरी वाणी स्तुवे तामहम् ॥२॥ ॐ कर्णे ! वरकर्णभूषिततनुः कर्णेऽथ कर्णेश्वरी, ह्रीं स्वाहान्तपदां समस्तविपदां छेत्त्री पदं सम्पदाम् । संसारार्णवतारिणी विजयतां विद्याभिधाने शुभे, यस्याः सा पदवी सदा शिव पुरे देवी वतंसीकृता ||३|| सर्वाचारविचारिणी प्रतरिणी नौर्वाग् भवाब्धी नृणां, वीणा-वेणुवरक्वणातिसुभगा दुःखाद्रिविद्राविणी। सा वाणी प्रवणा महागुणगणा न्यायप्रवीणाऽमलं, शेते यस्तरणी रणीषु निपुणा जैनी पुनातु ध्रुवम् ॥४॥ ॐ ह्रीं बीजमुखा विधूतविमुखा संसेविता सन्मुखा, ऐं क्लीं ह्रीं सहिता सुरेन्द्रमहिता विद्वद्जनेभ्यो हिता। विद्या विस्फुरति स्फुटं हितरतिर्यस्या विशुद्धा मतिः, सा ब्राह्मी जिनवक्त्रवज्रललने लीना तु लीनातु माम् ॐ अर्हन्मुखपद्मवासिनि शुभे ज्वालासहस्रांशुभे, पापप्रक्षयकारिणी श्रुतधरे पापं दहत्याशु मे। क्षां क्षीं हूं वरबीजदुग्धधवले वं वं व हं संभवे, श्री वाग्देव्यमृतोद्भवे यदि भवे मन्मानसे संभवे ॥६॥ हस्ते शर्मद- पुस्तकं विदधती शतपत्रकं चापरं, लोकानां सुखदं प्रभूतवरदं सज्ज्ञानमुद्रं परम् । तुभ्यं बालमृणाल-कन्दललसल्लीलाविलोलं करं, प्रख्याता श्रुतदेवता विदधतां सौख्यं नृणां सूनृतम् ॥७॥ हंसोऽहं सोऽतिगर्व वहति हि विधुता यन्मयैषा मयैषा, यन्त्रं यन्त्रं यदेतत् स्फुटति सिततरं सैव यक्षावयक्षा। हो। सभी दर्शनों के द्वारा आराधना करने योग्य; सभी मनोरथ का प्रदान करनेवाली; जिनेश्वर की भक्ति से परिपूर्ण ऐसी वाग्देवी मुझे विशुद्ध बोधि (ज्ञान) प्रदान करे। अनेक महान मुनियों की सुंदर स्तुतियों के द्वारा आराधित एवं मेरे द्वारा भी आराधित श्री सरस्वती ! तुम मुझे मनोवांछित प्रदान करो। ।समाप्तम्। टी.१. वितरतात् । २.स । ३. श्रीं । ४. विद्यावदाते । ५. शिववपुः । ६.साँ ।७. ववच: विद्याबह स्वाघहा। ८. मे। ९. पुस्तिकां। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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