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चिरंतनाचार्यविरचित-श्रीसरस्वतीस्तुतिः
पाटण हेमचंद्राचार्य ह. लि. ज्ञा. भंडार - प्रत नं. ८२६२
अनुष्टुप छंद: ॐ ह्रीं अहँ मुखाम्भोज-वासिनीं पापनाशिनीम्। सरस्वतीमहं स्तौमि श्रुतसागर-पारदाम्
॥१॥
धारण करती है।
श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यसें, क्रिया और फलके बारे में अवंचक (सरलता) योगसें, ॐ कारसे पवित्र जिन पुन्याक्षरो (मंत्राक्षरो)की मालाको स्वयं मुखकमलसें गिनते हैं, (और) जो विनेयपुरुषों मंत्रवर्णोसें वागीश्वरी देवीका ध्यान करते हैं, वे लोग श्रेष्ठ कक्षाकी निर्मलमतिसें बृहस्पतिको जीत लेते हैं।
१६-१७ हे माँ! तुम्हारी भक्तिमें एकरस होने वाले भव्य जीवोंकी गुणशास्त्र-कल्याण-कीर्ति-यश-ऋद्धि-आनंद-बुद्धि एवं वृद्धि उत्पन्न होती हैं।
१८ हे वाणी ! (सरस्वती !) राजहंस के साथ ही दिखनेवाली, तुम्हारे चरण कमलमें मेरा चित्त कब लीन होगा ? “तू लीन होगा" ऐसें प्रसन्न होकर प्रत्यक्षरूप से बोल।
श्री श्रुतदेवी, जिसके हृदयको सदा विभूषित बनाते हैं उनको सप्त नयों की दक्षता (और) उत्तम सप्त भंगी का विज्ञान सुलभ होता
२०
लक्ष्मी-बीजाक्षरमयीं मायाबीज-समन्विताम् । त्वां नमामि जगन्मात-स्त्रैलोक्यैश्वर्यदायिनीम्
सरस्वति वद वद वाग्वादिनि मिताक्षरैः। येनाहं वाङ्मयं सर्वं जानामि निजनामवत्
॥३॥
भगवति सरस्वति, ह्रीं नमोऽह्रि-द्वयप्रगे। ये कुर्वन्ति न ते हि स्यु र्जाडयांध-विधुराशय:
॥४॥
त्वत्पादसेवी हंसोऽपि विवेकीति जनश्रुतिः । ब्रवीमि किं पुनस्तेषां येषां त्वच्चरणी हदि
तावकीना गुणा मात: सरस्वति । वदामि किम् यैः स्मृतै रपि जीवानां स्युः सौख्यानि पदे पदे
॥६॥
त्वदीय-चरणाम्भोजे मच्चित्तं राजहंसवत् । भविष्यति कदा मात: सरस्वति वद स्फुटम्
।।७।।
२२
रसको फैलाने में विदुषी, चारभुजावाली, शुभ्र हंसके वाहनवाली ! कुंद जातिकें पुष्प और चांद जैसे (उज्ज्वल) गृहमें रहनेवाली, श्रुतदेवी भगवतीकी हम स्तुति करते हैं। २१
पुण्यके समूहसे युक्त होनेवालो को ही श्रुतदेवताकी भक्ति उत्पन्न होती है और अच्छी तरहसे सेवा करनेवालोकोही मंगलमय (ज्ञान) लक्ष्मीकी तुष्टि प्राप्त होती हैं।
उन्नीससी व्यानबे की महावदि सप्तमीके-गुरुवार, आठवें चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिष्ठाके दिन हर्षसें उत्तम बदरखा गांव में, गुरुवरश्री नेमिसूरिजीके शिष्य पद्मसूरि द्वारा इस सरस्वती विंशिकाकी रचना की गई हैं।
२३-२४ इस रत्नको जाननेवाले मैंने (मुनि) मोक्षानंदकी विज्ञप्तिसें यह रचना बनाई हैं, सहजभावपूर्वक पठन करने से पुण्यकी सम्पत्ति श्री संघमें प्राप्त होगी।
२५
श्वेताब्ज-मध्यचंद्राश्म-प्रासादस्थां चतुर्भुजाम् । हंसस्कन्ध-स्थितां चन्द्रमूर्युजवल-तनुप्रभाम्
॥८॥
वामदक्षिण-हस्ताभ्यां बिभ्रतीं पद्मपुस्तिकाम् । तथेतराभ्यां वीणाक्षमालिकां श्वेत-वाससाम्
उद्गिरन्तीं मुखांभोजादेनामक्षर-मालिकाम् । ध्यायेद् योगस्थितां देवीं स जडोऽपि कवि भवेत्
॥१०॥
यथेच्छया सुरसंदोहसंस्तुता मयका स्तुता। तत्तां पूरयितुं देवि । प्रसीद परमेश्वरि
॥११॥
इति शारदास्तुतिमिमां हृदये निधाय, ये सुप्रभात समये मनुजा: स्मरन्ति। तेषां परिस्फुरति विश्वविकासहेतुः, सदज्ञान-केवलमहो महिमानिधानम्
॥१२॥
। इति संपूर्णा।
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