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________________ देहवाली भव्यजीवसमूहके विघ्नों को नाशकरनेवाली, वनमें रहनेवाली, हे शारदादेवी मुझे विपुलमति दो। हे देवी ! मोक्षके अध्ययन में उत्साहसे भरे हए जीव, सदा - मधुर स्वभाववाले - प्रीतिभाव वाले तुझे विधिपूर्वक स्मरण करके (अभ्यास) पठन करते हैं। दिव्य आभूषणोंसे विभूषित बनी हुई, प्रसन्नमुखवाली, विशुद्ध सम्यक्त्ववाली, श्रुतसंघको प्रशांत करनेवाली, हे शारदादेवी ! मुझे उज्ज्व ल मति दो। જે વિનેચ મનુષ્યો મંત્રવર્ષોથી વાગીશ્વરી દેવીનું ધ્યાન ધરે છે, તેઓ શ્રેષ્ઠ એવી નિર્મળ બુદ્ધિ વડે બૃહસ્પતિને જીતે છે. ૧૭ હે માતા! તમારી ભકિતમાં રસ તરબોળ થનારા ભવ્ય જીવોને ગુણ, શાસ્ત્ર, કલ્યાણ-કીર્તિ, યશ, ઋદ્ધિ, આનંદ, બુદ્ધિ ને વૃદ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે. १८ हे वाणी (सरस्वती) ! १४हंस साथे सेवायेती तमाश य२। मलमा भाडं मन ध्यारे तीन (मे३पता)पामशे?.. 'तु' લીન થઈશ’ એ રીતે પ્રસન્ન થઈને (તું) પ્રગટપણે બોલ. ૧૯ શ્રી મૃતદેવી જેઓના હૃદયને હંમેશા શોભાવે છે તેઓને સપ્ત(સાત) નયની નિપુણતા, (અને) ઉત્તમ સાત ભંગનું વિજ્ઞાન सुलभ छ. २० રસનું સંચારણ કરવામાંવિદૂષી, ચારભુજાવાળી, શુભ (અત્યંત સફેદ) હંસના વાહનવાળી, કુંદ જાતિના પુષ્પો અને ચંદ્ર જેવા (ઉજજવળ) ઘરમાં રહેનારી, શ્રુતદેવી ભગવતીની હું સ્તુતિ કરું છું. ૨૧ પુન્યનાસમૂહથી યુકત થયેલાઓને મૃતદેવતાની ભકિતા ઉત્પન્ન થાય છે અને સારી રીતે સેવા કરનારાઓને મંગલમય (ज्ञान) लक्ष्मीनी तुष्टि प्राप्त थाओ. ૨૨ ઓગણીસોત્રાણું (૧૯૯૩)ના મહાવદ સાતમને ગુરુવારે આઠમાં ચંદ્રપ્રભુ ભગવાનના પ્રતિષ્ઠાના દિવસે હર્ષથી શ્રેષ્ઠ એવા બદરખાગામે ગુરુવર શ્રી નેમિસૂરિના શિષ્ય પદ્મસૂરિવડે આ विशि|रया (जनावा) छे. ૨૩-૨૪ આ રત્નને જાણતો હું મોક્ષાનંદની વિજ્ઞપ્તિથી કરાયેલ મેં આ રચનાને કરી છે. સહજભાવે ભણવાથી પુન્યની સંપદા શ્રીસંઘમાં थशे. ૨૫ संपू. सूरिवर जिस(देवी)का स्थिरचित्तसे निर्मल ध्यान करते हैं वह शारदा देवी (ग्रंथ) आरम्भके स्मरणकाल में वरदान देनेवाली हो।६ श्री और मायाबीज (ह्रीं) अक्षरस्वरूप, ऐश्वर्यको देने में शुभ लक्ष्यवाली, हे जगत्माता ! धन्य मनुष्य सदा प्रभातकालमें हर्षसे (तेरा) स्मरण करता है। हे महाहितको उत्पन्न करनेवाली (देवी!)। मिताक्षरो (अल्प शब्दो)सें मुझपर कृपा करके तू कह, तू कह, जिससे अल्प समयमें काव्यरचना बनाने के लिये हम समर्थ बनें। श्रुतसागरका पार प्राप्त करनेके कार्य में (तू) प्रतिदिन सहाय दे, क्या सूरजके किरण बिना कमलका विकास कभी होता हैं ? अर्थात् नहीं होता हैं। ८ ० अनुवाद (हे देवी!) तुझे नमस्कार हों, तुझे नमस्कार हो, तेरी कृपासे चतुर्विधश्री (साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाएँ) संघ श्रुतज्ञानको प्राप्त करनेका स्वभाववाले और दूसरे को बोध कराने में समर्थ होते १० अनेक, ग्रंथ बनाने (करने)वाले ग्रंथके प्रारंभमें तुम्हारे चरणोंमें नमस्कार करके शीघ्रतासें सिद्धिको प्राप्त करते हैं। (सचमुच) इधर तुम्हारा ही प्रभाव अनर्गल दिखाई देता है। व्यंतर निकाय के स्वामी गीतरति इंद्रकी पट्टरानी (पत्नी) देवी सरस्वतीके अनेक प्रकारके नाम तुम्हे ज्ञात हो। १२ श्रुतदेवी - समर्थ शास्त्रवाली, समया-भारती-भाषा-नित्यासरस्वती-शारदा-वाणी एवं हृष्टा आदिको एकमेव तुम्हारी पुनः पुनः स्तुति हो। भक्तिसे तुम्हारे चरणों में स्थित हुआ हंस भी विवेकी है ऐसी जगतमें श्रुति है। फिर वो (मनुष्योका) क्या ? जो तुम्हारे चरणोंका हृदयमें (प्रतिदिन) स्मरण करते हैं। शुभ्र वस्त्रोकों धारण करनेवाली हे देवी! दायें हाथमें उत्तम कमल और शास्त्रका पुस्तको तथा बायें हस्तमें वीणा और अक्षमाला श्री केसरिया (आदिनाथ) भगवान की, श्री पूज्य नेमिसूरिवर गुरुजी की स्तुति करके स्वाध्याय के आनंदमें दक्ष श्री शारदा स्तोत्रको मैं बनाता हूं। जिनेश्वरके मुखमें निवास करने वाली, दुरित (दुःख)का विनाशकरनेवाली, तीनलोकसें की गई स्तुतिवाली, सद्गुणो रूपी रत्नोंकी मंजूषा(पेटी)वाली, शारदादेवी (मुझें) विपुल मति दो।२ श्री गौतम केचरणकी सेवाकरनेवाली, प्रवचनोसे भीगे हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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