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प्रयोग फलदायी नहीं होते। उपरसे दुष्फल- दुर्गति देनेवाले बनते है। ऐसी स्पष्ट चेतावनी मंत्रमहर्षिया ग्रंथमें देते है।
मंत्र या औषध, अधिकारी गुरु द्वारा दिया जाय तब ही साधक के लिये फलदायी होता है। इस बातका साधकको ज्यादा ख्याल रखना चाहिये । सचमुचतो मंत्र- पुस्तके शिष्य के लिये नही गुरुओं के लिये ही लिखे जाते है, छपे जाते है। जिसमें से योग्य प्रयोग शिष्यके लिये पसंद करके गुरु वह प्रयोग करा सके और फल मिले।
जैन परंपरामें सारस्वत उपासना सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन दिवाकरजीके गुरुदेव आचार्य वृद्धिवादी सूरिजीके जीवनमें दिखाई देती है।
वृद्ध वयमें दिक्षित मुकुंद विप्र गुरु बंधुओं के वचनसे उ जित होकर भरुच के शकुनिका विहार चैत्यमें अनशन लेकर बैठ गये। २५ वे दिन सरस्वतीका वरदान प्राप्त किया। महान वादी बनें एवं वृद्धवादि सूरिजीके नामसे विख्यात बने ।
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पू. आचार्य वप्पभट्टी सूरि म. पू. आ. हेमचंद्रसूरि म., उपा. यशोविशयजी म. धेताम्बर जैन परंपरा के प्रख्यात सिद्ध सारस्वत महर्षि है। तो दिगंबर परंपरा में आचार्य मल्लिषेण प्रख्यात है ।
आ. बप्पभट्टी का मोढेराकी पोशालामें, श्री हेमचंद्रमुनिको अजाहरीमें, पू. यशोविजयजी को गंगातटमें सरस्वतीका वर मिला। आखरी शतकमें भी हिम्मत विमलजी तथा योगीराज शांतिसुरीने (आबुवाले) अजाहरी में सरस्वती प्रत्यक्ष किये थे।
आज भी अनेक समुदायोमें सारस्वत साधना चल रही है। कई कई भाग्यशालीको माताके दर्शन भी प्राप्त किए है। बाकि कई मुनि भी इस साधनाके प्रभावसे महाविद्वान या प्रभावशाली वक्ता बने है। कविश्रेष्ठ बने है।
जैन परंपरामें अजारी, शत्रुंजय गिरिराजकी तलेटी में आयी हुइ सिद्ध सारस्वती गुफा, काशीका गंगातट, भृगुकच्छ (भरूच) का मुनिसुव्रत मंदिर आदि सारस्वत साधना के केन्द्र रहे है । इसके अलावा श्वेतांबर - दिगंबर परंपराकी पोशाला और पाठशालाए भी सारस्वत साधना के केन्द्र रहे है। जहाँ गुरुकृपासे सारस्वत वर पाकर महाकवि अमरचंद जैसे असंख्य नामी - अनामी कवि एवं विद्वान मुनिवर हुए। जैन गृहस्थोंमें महाकवि धनपाल, महाकवि श्रीपाल, मंत्री वस्तुपाल, मंत्रीमंडन, सारस्वत प्रसाद पाकर महाकवि बने थे ।
वैदिक परंपरामें काशी काश्मीरमें आराधना कर, सिद्ध सारस्वत बननेवाले महाकवि कालीदास महाकवि हर्ष, महाकवि देवबोधि (कलिकाल सर्वज्ञ समकालीन) महाकवि सोमेश्वर आदि विश्वप्रसिद्ध है ।
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महापंडित देवबोधि का वृत्तांत प्रबंधो में मिलता है। वह साधकोंके लिये महत्वपूर्ण तथ्य प्रगट करता है। पंडित देववोधि
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गंगाके जलमें नाभि तक अंदर खड़े रहकर सरस्वतीके चिंतामणी मंत्र की साधना करते थे। सवालाखका पुरश्चरण होते ही सारस्वत वर मिलें ऐसा आम्नाय होने पर भी एक्कीस एक्कीस पुरश्चरण तक उन्हें वर न मिला। आखरमें खिन्न उद्विग्न होकर उन्होंने जपमालाको गंगा जलमें फेंक दी। माला गंगाके जलमें डूबने के बजाय आकाश में अद्धर स्थिर हो गई। पंडितजी आशर्य चकित हो गए। माँ ने आकाशवाणी करके कहा वत्स! खिन्न न हो। भवांतरकी बहोत हत्याए तेरी सिद्धिमें अंतरायभूत थी एक एक पुरशरण से एक एक हत्या का पातक तूट गये। अब तुं फिरसे एक पुरश्चरण कर, तुझे निश्चित वर मिलेगा । पुनः देवबोधिने पुरश्चरण किया और एवं सिद्धि प्राप्त हुई ।
सारस्वत के अन्य सभी सात्विक साधनामें ऐसे अनेक व्यपायों (संकटे) जन्म जन्मांतरीय हमें बाधारुप होते है। वे टले तब ही इष्ट सिद्धि हमें मिले।
"जपात् सिद्धि जंपात् सिद्धि र्जपात् सिद्धि ने संशय: । जपतो नास्ति पातकाम् ।' सात्विक साधकको यह बात नहि भूलनी चाहिए। सर्व मातृका मातृका - मयी भगवती सरस्वती निखिल, ब्रह्मांडेश्वर अरिहंत परमात्माकी डी परमशक्ति है। जो इहलोक में सर्वसिद्धि देकर अंतमें परमपद देती है।
मेरी सालो तक साधना एवं अभ्यास के परिपाकरुप यह बात मेरी समझमें आयी है। वि.सं. २००८ में मुझे उम्र में आठवां साल लगा और मेरी दीक्षा संपन्न हुई। मेरे सद्गुरुजी पं. भद्रंकर विजयजी महाराजाने मुझे सिनोरमें दादा शांतिनाथजी के मंदिरजी के पास नर्मदा नदीके तटकी समीप उपाश्रयमें दीक्षा बाद नव मास तक रखा।
पर्युषणामें संवत्सरीका अट्टम कराके मुझे सारस्वत मंत्र दीक्षा विधिवत् देकर सवालक्ष १। मूलयंत्र का जप किराया, सालो तक गुरुदेव निर्दिष्ट अट्टम एवं मंत्र जापका सिलसिला चलता रहा। वह सद्गुरुकी कृपासे प्राप्त माता सरस्वती भगवती के किंचित् अनुग्रह से यह नाँध किया है। मै... छद्यस्थ और अपूर्ण साधक हूँ इसलिये इसमें क्षति भी हो सकती है। जो सुज्ञ साधक सुधार लेंगे ऐसी आशा
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माँ सरस्वती पर अटूट श्रद्धावान मुनि कुलचंद्र विजयजी की हार्दिक प्रेरणासे यह नोंध लिखी गई है। उनके निमित्त में यह चिंतन मनन कर सका इसलिये मैं उन्हें भी सहायक मानता हूँ । अंत में मेरे सद्गुरुदेव पू. पंन्यासजी म.सा. तथा र्मां सरस्वती भगवती, नित्य मुझ पर सदा अनुग्रह बुद्धि रखें यही प्रार्थना ।
लि. धुरंधर वि.
वि.सं. २०५४ चै. व. ११ गुरुवार.
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