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मुख्य होगी ऐसा संभव है।
लोक प्रसिद्ध लक्ष्मी-सरस्वती तो उत्तर जंबू द्वीप के पुडरिक दहकी लक्ष्मी देवी तथा महापुंडरिक द्रह की बुद्धि देवी यह दोनोकी जोडी होगी ऐसा संभव है । श्री - लक्ष्मी यह लक्ष्मीदेवी है। धी बुद्धि यह सरस्वती देवी है। धी-बुद्धि दोनो सरस्वती देवी है। ह्री भी सारस्वत उपासनामें ली जाती है।
यह सब भवनपति निकाय के ही है। सूरिमंत्रमें उपास्य वाणीत्रिभूवन स्वामिनी और श्री देवी तिगिच्छिद्रहकी धी मानुषोत्तर वासिनी त्रिभुवनस्वामिनी, एवं पद्मद्रहकी श्री देवी ही होने का संभव है। यह तीनों भवनपति निकाय के है।
नृत्य संगीतकी देवी सरस्वती मयूर वाहिनी होनेका संभव है। बुद्धि तथा विद्वता के लिए उपास्या सरस्वती देवी हंसवाहिनी तथा कमलासना होनी चाहिए।
धी और बुद्धि देवी केभी वाहन भिन्न हो सकते है, जो मयूर और हंस हो सके। मुझे तो ये छे द्रहो भीषट्चक्रके साथ संबंधित हो ऐसा लगता है।
अब श्रुतदेवता का स्वरुप विचारें।
आर्य परंपरा में कोई भी दिव्य शक्तिको देवता कहनेकीपरंपरा है। दिव्यति इति देवता। जो चमके वह देवता। परमात्माने प्रवचन द्वारा प्रवाहित किया देदिप्यमान अनंत उर्जाप्रवाह वह ही सारस्वत महः या श्रुतदेवता है।
परमात्माके मुखसे प्रगटी हुई अक्षर - के बीजभूत परावाणी या भाषावर्गणा के देदिप्यमान पुंज का अक्षय स्रोत वही श्रुतदेवता है। जो परमात्माके निर्वाण बाद भी निर्विण्ण नही होता।
आजका विज्ञान भी मानता है। बोले गये शब्दो य बना हुआ कुछ भी, चिरकाल तक इथर में संगृहित होता है। जो पावरफूल (अति शक्तिशाली) ग्राहकयंत्र बनें तो हजारो साल पूर्वे बोले गये शब्दो या बनी हुई घटना उसी तरह फिरसे श्राव्य और दृश्य कर सकते है। रूप एवं भाषाके पुद्गल चिरकाल टीके तो यह शक्य बनें।
तीर्थकर नामकर्मके प्रभाव से यह शक्य है। परमात्मा द्वारा बोली गइ वाणीका जो जीवंत दिव्य प्रवाह, वही प्रवचनतदेवता या श्रुतदेवता है। इस वाणीको जो सूत्ररूपमें गुम्कित की गई वह द्वादशांगी है। इन दोनों के आराधन के लिये अपने यहाँ काउस्सग्ग होता है, वह ठीक ही है। तीर्थंकर परमऋषि है। ऋषि जो बोले वह मंत्ररुप बन जाये, पूरी द्वादशांगी मन्त्ररुप है। इस मंत्र में गुप्त उर्जा देवस्वरुप है।
इस तरह मंत्र और दिव्य शक्तिका हम द्वादशांगी एवं श्रुतदेवतारुप आराधना करते है। अब यह द्वादशांगीकी जो अधिष्ठाता है वह भी व्यवहार से श्रुतदेवता या प्रवचनदेवता कहते है।
प्रभुके प्रवचनकी- वाणीकी जिसने भवांतरमें उत्कृष्ट आराधना की हो ऐसे विरल आत्मा ही विशिष्ट शक्ति संपन्न श्रुतदेवता या सरस्वतीदेवी के रुपमें उत्पन्न होते है।
परमात्माके परमशक्ति स्वरुप सारस्वत महः या श्रुतदेवता, कर्मक्षयमें एवं शक्ति जागरणमें निमित्त बन सके वैसे वह देवीदेवता-औषध आदिभी बन सकते है।
कुवलयमाला के आखरी प्रस्तावमें पाँचवे भवमें परमात्माकी पाँच देशना है। उसमे कई जिज्ञासु के प्रश्नके उत्तरमें परमात्माने देवी-देवता-मंत्र-यंत्र एवं औषध-मणि-रत्न-ग्रह आदिको भी कर्मके उदय-क्षय और क्षयोपशम में कारणभूत होता है ऐसा स्पष्ट कहा है।
कर्म पौद्गलिक है इसलिए उसके बंध-उदय-क्षय आदिमें पौद्गलिक उपादान कारणभूत बन सके यह युक्ति युक्त है।
जैसे मंत्रजप द्वारा सारस्वत सिद्धि मिलती है। वैसेही मंत्रसिद्धि तेल-औषध आदि से भी सारस्वत सिद्धि मिलती है। उसकी परंपरा आज भी चलती है।
ग्रहण-समयमें रविपुष्प या गुरुपुष्पमें सिद्ध किये मालकांगणी के तेल द्वारा या केशर-अष्टगंध द्वारा शिष्यकी जिह्वापर मंत्रबीजका आलेखन करके शिष्यकी जडता दर की जाती। मंत्रसिद्ध सारस्वत चूर्ण और मालकांगणी ज्योतिष्मती तेलके सेवनसे सेंकडो शिष्योको महामेधावी बनाने का प्रयोग संस्कृत पाठशालामें होते थे। यह चूर्ण ज्यादाकर दिपोत्सव में सिद्ध होता था।
कवि ऋषभदास के लिये कहा जाता है की वे मंदबुद्धि के थे। उपाश्रयोमें गुरुभगवंतोकी सेवा करते थे। कचरा निकालते थे। एकबार सारस्वतपर्वग्रहणमें पूज्य विजयसेन सूरि म.ने अपने मंदबुद्धि शिष्यके लिये ब्राह्मी मोदक सिद्ध करके पाटले पर रखा। पच्चक्खाण का समय नही हुआथा और गुरुदेव बाहर गये। ऋषभदास सुबहमें जल्दी कचरा निकालने आये। वह मोदक देखा और खा गये। पू. आचार्यदेवने शिष्यके लिये मोदक खोजा, पर मिला नहि । ऋषभदासको पूछने से पता चला कि उन्होंने उपयोग किया है। (अंतमें) गुरुदेवकी आशिष से वे ऋषभदास महाकवि बने।
तेलंगणाके इश्वरशास्त्रीने भी ग्रहणके दिन ज्योतिष्मती तेलको अभिमंत्रित करके प्रयोग द्वारा अपनी पाठशाळाके पाँचसो (५००) विद्यार्थीयोको महामेधावी बनाया था।
इसीतरह सारस्वतयंत्रो-सारस्वत गुटिकाको धारण करनेसे महाविद्वान बननेके उल्लेख ग्रंथोंके पन्ने पर मिलते है। इसतरह मंत्रतंत्र-यंत्र-औषध आदि अनेक प्रयोगों द्वारा अपने यहाँ सारस्वत साधना होती है।
साधक अपने सद्गुरुद्वारा इसमेंसे कोई भी आलंबन प्राप्त कर सारस्वत प्रसाद प्राप्त कर सके। मात्र पुस्तकमें लिखे या छपे हुए
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