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यह 'सारस्वत महः' आकाशमंडलमें नदीके जैसे प्रवहता परमात्माका एक विशिष्ट प्रचंड उर्जाप्रवाह है जो ऐसे संगम स्थलो में जहाँ चुंबकीय वातावरण हो वहाँ अवतरित होता है। जिसकी उपासना करके मानव साधक अपना इप्सित प्राप्त करते है। यह ब्रह्मांडीय सारस्वत महः की बात हुई। अब पिंड के साथके उसके संबंध की बात करें। अपने पिंड (देह) में भी इडा-पिंगला नामक प्राणधारा बहती है। जो गंगा-सिंधू है । यह दोनो का संगम होने पर सुषुम्णा कही जाती है। वही सरस्वती है। सारस्वत पथमें प्रवहणकरते उर्ध्व मुखी तेज - सारस्वत महः वही कुंडलिनी शक्ति है। यही त्रिपुरा, यही परात्परा वाणी है। जिसमें से समग्र अक्षरमातृका प्रगट हुई है। एवं द्वादशांगी भी प्रगट हुई।
सारस्वत शक्तिपीठों में प्रवहता परम अर्जाप्रवाह विशिष्ट मंत्र बीजों द्वारा अपने भीतर आकर्षित होता है। उसके द्वारा अपने ज्ञानावरणीय कर्म का दहन होता है। एवं भीतरका सारस्वत मह. प्रगट होता है। मतलब ब्रह्मांडमें बहता ‘परमात्माका विशिष्ट उर्जा प्रवाह' वह ही सरस्वती. उसका अवतरण जहाँ हो वह सारस्वत तीर्थ (एवं) वहाँ के जो अधिष्ठायक देव हो वह सरस्वती देवी। और इस प्रवाह को जो अपने भीतर आकर्षित करे वह सारस्वत मंत्र।
साधककी जितनी पात्रता हो उतना ही महाप्रवाहमें से प्रसाद मिलें। यह भिन्न भिन्न शक्तिपीठोंकी अधिष्ठायिका एक भी हो सकती है और भिन्न भिन्न भी हो सकती है।
हर शक्तिपीठोंकी भौगोलिक स्थिति अलग अलग होने से वहाँ प्रगटने वाले सारस्वत उर्जा प्रवाहमें तरतमता होगी, इसलिये उपासनाके लिये मंत्रबीजों में भी वैविध्य रहेगा।
सरस्वती की मुख्य तीन शक्तिपीठ / अलावा, लघुशक्तिपीठों असंख्य हो सकती है। जैन परंपरा की प्राय: सभी पोशालाएँ सारस्वत उपासनाके सिद्ध केन्द्र स्वरुप थी।
सारस्वत-प्रसादमें दो विभाग है। प्रथम स्मृति - धारणा - प्रज्ञा और बुद्धि। द्वितीय विभाग वाक्शक्ति और कवित्व की प्राप्ति आदि । सारस्वत साधना करते करते प्राण-सुषुम्णा = मध्यमपथमें स्थिर बने तब प्रथम हिस्से (तबक्का) में स्मृति - धारणा और प्रज्ञा तीव्र होती है। वही स्थिर प्राणमें दूसरे हिस्से में सारस्वत उर्जाका अवतरण होते ही कुंडलिनीका जागरण होता है और उस जागरण बाद उर्ध्वगमन होता है। उसमें से क्रमशः प्रबल वाक्शक्ति उत्कृष्ट कवित्व और आखिरमें कैवल्य भी प्रगट होता है। इडा और पिंगलामें (सूर्य और चंद्र -आत्मा और मन) बहती प्राणधाराका स्थिरमिलन है सुषम्णा। औदारिक - तैजस् - कार्मण या स्थूल-सूक्ष्म-कारण के यह तीनों शरीरमें अनुस्यूत आत्मउर्जा वह कुंडलिनी महाशक्ति।
प्राणधारा सुषुम्णा में स्थिर बने वह प्रथम हिस्सा, स्थिर हुई प्राणधारा आकाशमंडलमे बहती सारस्वतमहः की धारा को धारण कर, आत्म उर्जाको उर्ध्वगामिनी बनायें वह दसरा हिस्सा (तबक्का)जो
कैवल्य प्राप्तिमें पूर्ण होती है। पू. बप्पभट्टी सूरि म का कन्दात्कुण्डलिनी अथवा पू.मुनिसुन्दर सूरि म.का कलाकाचित्कान्ता' या लघुकवि का ऐन्द्रस्येव शरासनस्य' या फिर पृथ्वी धराचार्य का 'एन्दव्या कलया' या तो उपाध्याय यशोविजयजी म. का प्रणमता नर्गलज्ञान. स्तोत्र यह परमात्माके मुखसे प्रगट हुई परम सारस्वती उर्जाप्रवाहका ही वर्णन करते है। परमचिति शक्तिकी स्तवना करते है। कोई चतुर्निकायदेवी की नहि यह तो नाद और ज्योतिकी साधना है। जो पूर्ण होते ही परमात्मा साक्षात्कार में परिणमन पाते है। कैवल्यकी प्राप्ति उसकी चरम परिणति है। सिद्ध अनुभवी साधकोका एक विशिष्ट अनुभव भी है। वह भी विज्ञानसे सिद्ध होनेसे नोंध ले।
हम जो सिद्ध मंत्र बीजों या स्तात्रों का जप या पाठ करते हैं, उनके शब्दो में से एक जबरदस्त चैतन्य प्रगट होता है। ध्वनि तरंगोमेंसे विशिष्ट विद्युत् पेदा होता है। वही अपना इष्ट कार्य करता है। मंत्र या स्तोत्र चैतन्यमय होनेसे उसके ध्वनि तरंगोमें से इष्ट का दिव्य स्वरुप स्वयं प्रगट होता है। एवं हमें अनुग्रह या निग्रह करता है। मंत्र स्वयं देवरुप है। निरंतर जप द्वारा उसकी शक्ति प्रगट होती है। जैसे अरणि के मंथन से अग्नि प्रगट होता है। वैसे वैज्ञानिकोने भी शब्द से ऐसी शक्ति परीक्षित की है। मंत्र या स्तोत्रके ध्वनि तरंगो से हल्की (आछी) (धन न हो वैसी) रेत में इष्ट का चित्र स्वयं उठता है।
अनुभवी साधक ऐसा मानते है की शुद्धता से किया गया सिद्धमंत्रो का जाप ही दिव्य शक्ति प्रगट कर अपना इष्ट सिद्ध करता है। मंत्र चैतन्यसे भिन्न कोई देव नहीं है। मंत्रबीजोंकी भिन्नतासे इष्ट का स्वरुप भी भिन्न भिन्न हो सकते। इस लिए सरस्वती के भी भिन्न भिन्न स्वरुप है। हसवाहना - मयूरवाहना आदि एवं वीणाधारिणी - कमंडलूधारिणी आदि भी है। यह सब सिद्धमंत्र चैतन्यका ही महाविलास है।
साधना जगतमें अनुभवों एवं उसके अनुमानमें ऐसा वैविध्य रहेगा ही। पर आखिर में सब एक ही हो जाता है।
अब देव जगतमें सरस्वती देवी कौन है ? उसका विमर्श करे। प्राचीन परंपरामें सरस्वती को संगीत नृत्य और नाट्य की देवी भी कही है। यह सरस्वतीदेवी गंधर्व निकाय के इंद्र गीतरति की पट्टरानी संभवित है। वे प्राय: मयूरवाहिनी होगी। मयूर कलाका प्रतीक है। जंबूद्वीप आदि आठ द्वीपमें छे वर्षघर पर्वतें है। सभी पर्वत पर छे द्रह है। वे द्रहो में श्री- ही - धी- कीर्ति - बुद्धि - लक्ष्मी यह छे द्रहदेवीर्यां है। इसमें ह्री- धी- बुद्धि यह तीनों सरस्वती है। ॐ नमो 'हीरीए बंभीए' में यह ह्री देवी का स्मरण है । "कुवलमाला महाकथा"भी ही देवता के प्रसाद का सर्जन है। धी और बुद्धिभी सरस्वती के ही नाम है।
धी याने धारणा-स्मृति । बुद्धि याने बोध-विद्वता । समतल अपने यहाँ जो सारस्वत-उपासना चलती है। उसमें यह तीन देवी
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