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________________ ग्रंथ गरिमा की गौरवता ॐ ऐं नमः श्री सदगुरुचरणेभ्यो नमः जगज्जननी भगवती वाग्देवी सरस्वती की उपासना सृष्टिके उषःकालसे हो रही है। युगादिकालमें वह ब्राह्मी के नामसे प्रख्यात हुई । भगवान युगादिदेव ऋषभनाथको सृष्टिके आद्यकर्ता ब्रह्मा माना जाता है। ब्राह्मी उनकी पुत्री, परमात्माने दाहिने हाथसे उसे लिपि सिखाई एवं अक्षर मातृकाको लिपि रुपमें जगतमें प्रकट की। वह ब्राह्मी लिपि कही गई । और ब्राह्मी 'वाणीकी देवता' रूपमें प्रस्थापित हुई । जैन आगमों में सबसे प्राचीन भगवतीसूत्र माना गया है। उसके प्रारंभ में 'नमो बंभिए लिविए' लिखा गया है। इस तरह ब्राह्मीसरस्वतीको प्रणाम किया गया है । प्रस्तुत ग्रंथ में नोंध किया गया आगमिक मंत्र भी ऐसा ही है। ॐ नमो हिरीए बंभीए भगवईए सिज्झउ मे भगवइ महाविज्जा बंभी महावंभी स्वाहा। अन्य भी आ. भद्रबाहु आदि महर्षिकृत सारस्वतमंत्रोमें कहीं भी ऐं बीज नहि है । ॐ पूर्वक पंच परमेष्ठि तथा सरस्वतीके स्वरुपवाचक पदों द्वारा ही मंत्रनिर्मित हुए है । इससे लगता है की प्राचीन परंपरामें शब्द ब्रह्म के मूलबीजरूप ॐ कार से ही प्रगटनेवाली सरस्वतीकी उपासना होती होगी। जैन परंपरा वर्धमान विद्याओमें ॐ के अलावा कोई बीज नही है। 'ॐ' यह नादब्रह्म परमात्म स्वरुप है । उसीमें से ही अन्य सभी बीजें प्रगट होते है । विक्रमकी पांचवी शताब्दि के बाद बीजमंत्रोंका काल शुरु होता है एवं सरस्वतीका स्वतंत्र '' बीज, मंत्रोमें प्रवेश करते है। अ+उ+म् = ॐ होता है। वैसे ही अ+इ+म् = ऐं होता है। यह दोनो बीजों मात्र स्वररूप है । ॐ परमात्माका प्रतीक है तो हैं वागशक्ति का प्रतीक है। मात्र स्वर से निर्मित यह दोनो बीजों परमात्मा एवं प्रकृति के युगल जैसे है। जिससे समग्र सृष्टिका सर्जन हुआ। ब्रह्मा सरस्वतीके कर्त्ता है तो सरस्वती उनकी शक्ति है भगवान युगादिनाथने अक्षर मातृकारुपमें सरस्वती प्रगट की, बाद ही विश्व के सभी व्यवहारों का सर्जन हुआ। इस अर्धमें उन्हें हम ब्रह्मा समजें । अथवा ब्रह्मा याने आत्मा, उनकी नाभिसे ॐ नादब्रह्म उठता है उसमें से ऐं प्रगट होता है। बाद में अक्षर- मातृका और समग्र Jain Education International X श्रुतका सर्जन होता है । अथवा आत्मा ही ब्रह्मा है । परावाणी है सरस्वती, जिसमें से आत्माके विकल्प प्रगट होते हैं और संसारका सर्जन होता है। ऐं बीज के बाद फिर तो उत्तरोत्तर तांत्रिककालमें नये नये बीज मंत्र जुडाये गए। और विविध सारस्वत उपासनाए चलती गई । जिसके परिपाकरुप सरस्वतीके असंख्य नाम, असंख्य मंत्रो एवं स्वरुपो आज हमें मिल रहे है। अभी हम मुख्य विचार करें। क्या सरस्वती कोई देवी है ? कि आत्मशक्ति है ? या कोई विशिष्ट अलौकिक शक्ति है ? सारस्वत तत्त्व क्या है ? जैन ग्रंथो में सरस्वती एक गीतररति नामक गंधर्व निकाय के व्यन्तरेन्द्रकी एक पट्टराणी है । ऐसा उल्लेख मिलता पर कोई व्यंतरदेवी ऐसी परमशक्ति हो ऐसी बात कोई भी मंत्र मर्मज्ञ साधक स्वीकारने तैयार नहि होगा। महान साधक मुनियो एवं कविजन लिखित अनेक ग्रंथोके प्रारंभ में 'सारस्वत महः' के ध्यानका उल्लेख मिलता है । महः याने तेज यह सारस्वत तेज क्या है ? वह कोई देवी तो नहि ही है, किंतु कोई विशिष्ट शक्ति है। • । वैदिक परंपराओमें प्राचीन कालसे तीन महानदीयो का उल्लेख मिलता है। गंगा सिंधु और सरस्वती सरस्वतीको परंपरा, गुप्त नदी मानते है । अब रही मात्र गंगा और सिंधु, किंतु साथ ही ऐसी एक प्रबल परंपरा है, की को भी दो नदी का संगम होवे उसमें सरस्वतीका प्रवाह स्वयं आ जाता है, इसी वजह वह त्रिवेणी संगम कहा जाता है । ऐसे जो विशिष्ट त्रिवेणी संगमके स्थल है वह सरस्वतीका निवास माना जाता है। ऐसे तीन सारस्वत तीर्थ मुख्य है। काश्मीर - काशी और अजारी (पिंडवाडा राज.) ये तीनों स्थल पर झील (झरणा) या नदीयो का त्रिवेणी संगम है । - For Private & Personal Use Only मेरा ऐसा मानना है की जहाँ ऐसे त्रिवेणी संगम बनते है, वहाँ कोई विशिष्ट अलौकिक विद्युत् चुंबकीयवृत्त (magnetic fildमेग्नेटीक फील्ड) होता है जिसमें विशिष्ट शक्ति (विद्युत) प्रवाहका अवतरण होता है। जिसे दिव्यद्रष्टा योगीयो 'सारस्वत मह:' नामसे पहचानते है जो यह निश्चित मंत्रबीजों द्वारा की गई उपासना अपने भीतरके शक्तिकेन्द्रो को अनावृतकर खोल देती है। - www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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