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________________ हाथ जोड़ कर (मैं) खडा हूँ । 'बस (अब)' लोगो के इन शब्दों से प्रयत्नपूर्वक मना किये जाने पर भी तुम्हारी गुण- गरिमा के गान की इच्छा करता हुआ मैं तुम्हे प्रणत ( झुका हुआ) है। दीर्घ कालसे बने हुए विधान (कार्यक्रम) वाली, प्रतिदिन वृद्धिंगत यह तुम्हारी भक्ति मुझे मोक्ष - दायिनी बने । ३ चाहे तुम्हारी कृपा हो चाहे (अवश्य) वज्रपात हो, तुम्हारे चरण कमलो के सिवा मेरी और कौनसी गति है ? शरण में आये हुए (मनुष्य) के मुख में आत्मानन्द के प्रकाशस्वरूप तुम्हारी भक्ति ही संसार में गिरेहुए लोगों का जीवन (प्राण) है। मुझे हमेशा धैर्ययुक्त विचार, क्षमा और निर्मल चरित्र वाले सज्जनो का संग दो (मेरा) चित्त कभी भी जगत के अनुभव की माया से विमोहित न बने, मोक्षमार्ग मे मुझे सतत शुद्ध बुद्धि दो ॥५ हे दिव्य वेषवाली ! (आप) सुयोग (समीचीन) विविध शब्दो द्वारा वर्णित, उज्ज्वल वर्णवाली, कर्णमधुर ध्वनि से उद्घोषित, मंजुल (कर्णप्रिय ध्वनियुक्त) वीणा धारिणी ! उज्ज्वल वस्त्रोकी शोभावाली (हैं!) वे शारदा देवी, विपत्तियों से बने हुए विकारो से मेरी रक्षा करे। बचाएं। ६ ( वह देवी) अपने भक्त को निर्मल बुद्धि के प्रकाशरूप, सद्गुणो के गौरव रूप, सर्व विद्या का विस्तार प्रदान करे, सब देवो के समुदाय मे इस (देवी) का (जो) सात्विक रूप ( है, सो ध्यान योग के समय संसार के भय से मेरा रक्षक ( मुक्त करने वाली) हो ॥७ वह कलियुग के दोषो मे पड़े हुओ को पवित्र करनेवाली गंगा है, वह संसार के भयरूप अनिष्टो को नष्ट करनेवाला राम नाम है, और वरदान देनेवाले देवो में मुख्य ब्रह्मा हो तो भी वे सब ज्ञानदान मे (महिमा से) हे देवी! तुम्हारे बराबर नहीं है। ८ देवो का स्वभाव सहज- कोमल होता है और स्तुति (प्रशंसा) के शब्दो से तुष्ट होकर कौन प्रसन्न नही होता ? वाणिया की स्वामिनी यह (देवी) तो मेरे लिए अधिक कृपा कारिणी ही हैं, जो स्वयं भी इस स्तोत्र को मेरे शब्दों से पढ़ती है। ९ सुन्दरश्वेत पंखोवाला हंस पक्षी जिसका वाहन है आर्द्रध्वनि से मनोहर वीणा जिस के हाथ में धारण की हुई है, जिसके हाथ में जपमाला है, बाये हाथ मे वेद है, वह मधुर सुन्दररूपवाली शारदा मेरी रक्षा करे । १० आत्माज्ञान के लिए, दयामुक्त दृष्टिपातवाले सब सज्जनसमूहों द्वारा सुखकर कोमल हस्तस्पर्श से जाग्रत किये गये आत्मावाला, हर्षित - रोमांचित अंगोवाला, गुरुजन, देवो और वृद्धो द्वारा आश्वासित ऐसा मैं तुम्हे नमस्कार करता हूँ । ११ Jain Education International यहाँ (इस लोक में) विविध जनों द्वारा जो कुछ दिया जाता है। सो सचमुच भाग्य ही है। वह क्षणिक सुख देनेवाला अन्त में नष्ट प्रायः ही हो जाता है। जिससे मुक्ति प्राप्त होती है सो तेरी ज्ञान विज्ञानपूर्ण कृपा शाश्वत सुख का कारण होती है। १२ नवधानी प्रकारसे भक्ति की गई ऐसी तुम सदा सराही जाती हो - तुम्हारी सदा स्तुति की जाती है। तुम्हारे सिवा अन्य किसी विषय मे (मेरा) चित्त प्रेरित न हो। पठन मे लीन लोगो के लिए मुक्ति और कल्याण का कारण स्वरूप मेरा सारस्वत स्तवन जनहित के लिए हो । १३ अपने कुलजनो की शांतिपूर्ण सेवा पूरी करके, बहुत उचित कार्य किया हुआ, सन्तुष्ट और आप्त काम ऐसा वेरागी, तुम्हारे पद को पाने का इच्छुक, भली भाँति उदित स्थिर बुद्धिवाला भक्त संसाराग्नि में पुनः कभी नहीं जलता। १४ हे भगवती ! तुम्हारा यह समस्त स्तोत्र ( तुम्हारे आगे) समक्ष हो। यदि कुछ दोषयुक्त वर्णन किया गया हो तो उसे क्षमा करो । तुम्हारे चरणो में विनयशील (विनीत) में एक ही तत्व जानता हूँ कि तुम प्रसन्न होकर कभी दुःखी भक्त का त्याग नही करती । १५ । सम्पूर्णम् । ५६ श्री वीणापाणि स्तुतिः शरणं करवाणि शर्मदं ते चरणं वाणि चराचरोपजीव्यम् । करुणामसृणैः कटाक्षपात: कुरु मामम्य कृतार्थसार्थवाहम् ||१|| आशासुराशी भवदङ्गवल्ली, भासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम् । मन्दस्मितै निन्दितशारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासना सुन्दरि ! त्वाम् ||२|| वचांसि वाचस्पतिमत्सरेण साराणि लब्धुं ग्रहमण्डलीव मुक्ताक्षसूचत्वमुपैति यस्याः सा सप्रसादाऽस्तु सरस्वती व ज्योतिस्तमो हरमलोचनगोचरं तजिद्वादुरासन्दरसं मधुनः प्रवाहम् । दूरे पुलकबन्धि परं प्रपद्ये सारस्वतं किमपि कामदुधं रहस्यम् ||४|| या कुन्देन्दुतुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता, या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेत पद्मासना । या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभि र्देवैः सदा वन्दिता, सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा | सम्पूर्णम् । १४३ For Private & Personal Use Only ||३|| 11411 www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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