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________________ मुखवाली भारती देवी को मैं प्रणाम करता हूँ। हे वाचस्पति (बृहस्पति) द्वारा स्तुति की गयी देवी ! हे गाढ अंधकार को विशेषत: नाश करनेवाली! मुझे सदा पाप से बचाओ। (रक्षा करो) और मुझे विद्यासिद्धि दो।... ॥४॥ ब्रह्माणी ! विश्व प्रसिद्धा ! प्रसन्नस्वरूपा ! ब्रह्मचारिणी ! हे माता ! मेरी वाणी की शुद्धि करो जिससे मैं भली भाँति कीर्ति प्राप्त करू। ॥५॥ 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं नमः' इस अन्तवाले महामंत्र के स्वरूप वाली ! एकाग्रचित्त से ध्यान करनेवाले को त्रिपुरा (देवी) अत्यंत सन्तुष्ट होती है।.. संवत् २००५ - दो हजार पाँच - में मैंने यह ब्राह्मी (सरस्वती) का अष्टक लिखा जो मनुष्य हररोज त्रिकाल इसको गिनेगा (पढेगा), वह सुख का भोक्ता और वक्ता बनेगा। - - ॥६॥ ।।७।। इस तरह मन-वचन-काया के विशुद्ध भावो के कारण पुण्य की लक्ष्मी स्वरूप श्रुत (ज्ञान) के सुंदर (उज्ज्वल) वर्ण (रंग)मय ऐसी मुझको जो स्तवना करता है, वे ज्ञान के मुख्य स्थान (केवलज्ञान) के साधन में एकचित्तवाली, करोडों कल्याणों से मनोहर लक्ष्मी को प्राप्त करते है। मातर्देहभृतामहोऽतिमयी नादैकरेखामयी. सा त्वं प्राणमयी हुताशनमयी बिंदुप्रतिष्ठामयी। तेन त्वां भुवनेश्वरी विजयिनीं ध्यायामि जायां विभो, स्त्वत्कारुण्यविकाशिपुण्यमतय: खेलंतु मे सुक्तयः त्वामश्वत्थदलानुकार मधुरमाधारबद्धोदरां, संसेवे भुवनेश्वरीमनुदिनं वाग्देवतामेव ताम्। तन्मे शारदकौमुदीपरिचयोदंचत्सुधासागर, स्वैरोजागरवीचिविभ्रमजियो दिव्यन्तु दिव्या: गिरः लेख प्रस्तुतवेद्य वस्तुसुरभि श्रीपुस्तकोत्तंसितो, मात: स्वस्तिकृदस्तु मे तव करो वामोभिरामः श्रिया। सद्यो विद्रुमकंदलीसरलता संदोहसान्द्रांगुलि, मुंदा बोधमयीं दधत्तदपरोप्यास्तामपास्तभ्रमः मात: पातकजालमूलदहनक्रीडाकठोरा दृशः, कारुण्याभृतकोमलास्तव मयि स्फूर्जन्तु सिध्यूर्जिता। आभि: ख्याभिमतप्रबंधलहरीसाकूतकोतूहला, चान्तस्यांत चतुर्मुखोचितगुणोद्गारां करिष्ये गिरम् त्वामाधारचतुर्दलांबुजगतां वाग्बीजगर्भे यजे, प्रत्यावृतिभि रादिभिः कुसुमितां मायालतामुन्नतां । चूडामूलपवित्रपत्र कमला-प्रेखोलखेलत्सुधा, कल्लोलाकुलचक्रचंक्रमचमत्कारैकलोकोत्तराम् सोऽहं त्वत्करुणाकटाक्षशरण: पंचाध्वसंचारतः, प्रत्याहृत्य मनो वसामि रसनारंगं ममालिंगतु । श्री सर्वज्ञविभूषणीकृतकलानिस्यंद मानामृत, स्वच्छंदस्फुटिकाद्रिसांद्रितपय: शोभावती भारती मात र्मातृकया विदर्भितमिदं गर्भीकृतानाहत, स्वच्छंदध्वनिपेयमध्यनिरतं चंद्रार्कनिद्रागिरी। संसेवे विपरीतरीति रचनोच्चारादकारावधि, स्वाधीनामृतसिंधुबंधुर महो मायामयं ते मह: तस्मान्नंदनचारुचंदन-तरुछायासु पुष्पासव,स्वैरास्वादनमोदमानमनसामुद्दामवामभुवाम् । वीणाभंगितरंगितस्वरचमत्कारोऽपि सारोज्झितो, येन स्यादिह देहि मे तदभित: संचारि सारस्वतम् आधारे हृदये शिखापरिसरे संधाय मेधामयीं, वेधाबीजतनूमनूनकरुणा पीयूषकल्लोलिनीम्। त्वां मात र्जपतो निरंकुशनिजाद्वैतामृतास्वादन,प्रज्ञांभश्चलकैः स्फुरन्तु पुलकै रंगानि तुंगानि मे वाणीबीजमिदं जपामि परमं तत्कामराजाभिघं, मातःसांत परं विसर्ग-सहितौंकारोत्तरं तेन मे। ||८|| सम्पूर्णम्। ॥९ ॥९॥ ॥ श्री पृथ्वीधराचार्यकृत । श्री सिद्ध सारस्वत स्तोत्रम् । ॥एँ।। ||१०|| ॥१॥ ॥११॥ ऎन्दव्या कलयावतंसितशिरो विस्तारिनादात्मकं, तद्रपं जननि! स्मरामि परमं सन्मात्रमेकं तव । यत्रोदेति पराभिधा भगवती भासां हि तासां पदं, पश्यंती मनुमध्यमा विहरति स्वैरं च सा वैखरी आदि क्षांतविलासलालसतया तासां तुरीया तु या, क्रोडीकृत्य जगत्त्रयं विजयते वेदादि विद्यामयी। तां वाचं मयि संप्रसारय सुधाकल्लोलकोलाहल,क्रीडाकर्णनवर्णनीयकवितासाम्राज्यसिद्धिप्रदाम् कल्पादौ कमलासनोऽपि कलयाविद्धः कयाचित् किल, त्वां ध्यात्वांकुरयांचकार चतुरो वेदांश्च विद्याश्चतः । तन्मात ललिते प्रसीद सरलं सारस्वतं देहि मे, यस्यामोदमुदीरयंति पुलकै रंतर्गतादेवताः ॥२॥ ।।१२।। ॥३॥ १२५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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