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________________ हे शारदे ! सर्व दोषरुप रात्रिमें सूर्य जैसी तेजस्विनी है। सद्गुण प्राप्ति रुप अंकुराकी उत्पत्तिमें मेघधारा को धरनेवाली हो! ज्ञानगंगाके अवतरण के लिये हिमालय तुल्या और विश्वकी सभी विद्याओकी धरित्री हो! २७. हे माता शारदे ! तेरे प्रभावसे कष्ट भी मिष्ट बन जाते है। अतिकण भी हिमकण बन जाते है कालकूट जहर भी पीयूषकण बन जाता है। पृथ्वी स्वर्ग तुल्य बनती है, अबुझ भी प्रबुद्ध होता है। २८. २९. इसीलिए ज्ञान-धन प्रदान करने में हे देवि! तुं मेरे द्वारा कल्पवृक्ष तुल्य निश्चित की गई है। भक्त में भक्ति भीनहि है और प्रमा (बुद्धि) भी नहि है यह देखकर तुं श्रेष्ठ-प्राज्ञता से उसे सभर कर। १५. हंसके यान पर बैठकर गमन करनेवाली, दिव्य-तेजस्वी वस्त्रधारी, सुंदर चलायमान आभूषणों और कलासे शोभित हे देवि! तुम तीन लोकके प्रत्येक प्राणी की संजीवनी हो! १६. कुंद-पुष्प, हिम, हार और चंद्रकी तरह उज्ज्वलवर्णा, शरदऋतुके चंद्र जैसी निर्मल प्रभावाली, पापवेलडी के विनाशमें अग्नि जैसी, तुं सत्वर मेरे चांवल लोचनको पवित्र कर! १७. हे भाग्यदात्री भारती ! आपका महागौरवशाली मंत्रराज सर्वकष्टरुपी मृगोको सिंह तुल्य है। सर्व सुखों की वल्लीओको मेघ तुल्य है और ज्ञानका महासागर है। १८. हे विद्यालक्ष्मी शारदे ! तेरे यह मंत्रको जो मनमंदिरमे हर्षोल्लास से अच्छी तरह स्थापन करतें है उन्हें कोइभी भय नहि होता और प्रभाव को प्राप्त करते है। हे शारदे ! जो जन्म से ही अज्ञता में बूडे है वे भी तेरी कृपा द्रष्टिकी सद्वृष्टि से बुद्धिमानों के मनारंजक बनें है। बनते है और बनेंगे! २०. जैसे पद्मवंदमें भ्रमरों आसक्त होते है, वैसे निर्मल ध्यानसे रंजित अकाग्रचित्त से शोभित भक्ति की सदभावना से भावितपंडितों तेरे चरणकमलके युगल में रत/आसक्त बने हैं। २१. ग्रंथ निर्माण शक्ति रुप कमलके विकास में सूर्यकिरण सम, तथा दुर्भेद्य वादीओं रुप रात्रि के लिये मार्तण्ड तुल्य, शास्त्रज्ञान रुप सागर में चन्द्र तुल्य, प्रभावलय से देदिप्यमान भारति की में सद्भाव से स्तवना करता हूँ। २२. देवदेवेन्द्र और विद्याधरो द्वारा वन्दिता, सद्गुणोंकी सभी ऐसे संबोधनवाली, शुद्ध साधुव्रतवानों से सन्मानित हे देवता! तुम शीघ्र विघ्नों के वृंद को हरो! २३. __ केवलज्ञानके हेतुभूत आगमज्ञानकी दात्री, वाणी द्वारा विख्यात, सत्कीर्ति और शांतिकी प्रदायिका, भावरोगसे पीडित भव्यों को औषधि दिखानेवाली प्रसाद दात्री हे शारदे ! तुं प्रसन्न हो! २४. हे शारदे ! तेरे सेव्य पादकमलों की सेवामें तत्पर लोगों द्वारा तेरी कृपा प्राप्त की गई है । श्रेष्ठ ज्ञानवंत प्राज्ञों के समूह द्वारा तेरे पदकमल अच्छी तरह सेवनीय है। २५. हे शारदा! तुं सौंदर्य, सौहार्द, और तेजोमयी है, प्रेम पीयूष के सन्दोह-मैत्रीमयी हो। हे भारती ! आप सद्-आनंदकी लीलाके स्थानभूत हो, विश्वविख्यात सर्व कीर्तिकांता के निवासस्थान हो! २६. हे शारदे ! तेरे मुखरुपी बादल से उठता गंभीरनाद जो मेघ गर्जारव को भी परास्त करता है। वह नाद सुननेके लीये तेरा भक्तका मयूर की तरह उत्सुक है। हे सरस्वती ! तेरी गुणवार्ताके वृंदको लिखने में हजार हाथ भी कम होते है। तुझे ऊँची निगाह से देखने में तो विद्वद् वृंद भी नामुमकीन है। ३०. हे अमृतनिर्झरी ! सर्वचिंताचूरक, विश्वविश्वेश्वरी वागीश्वरी ! तेरे नाम मंत्रको जो एकाग्रचित्तसे स्मरते है, वे परमानंद लक्ष्मीको तुरंत ही प्राप्त करते है। हे शारदे ! तेरे गुणस्तोत्र पाठको धारण करते साधक तेरे प्रयास से उत्तम भाग्यभार बहनकरनेवाले होते है, मंगलमाला वहन करनेवाली तथा नित्य मुक्तिप्रभके अभिलाष को बहन करनेवाली १९. हो! ३२. । सम्पूर्णम्। ४४ श्री सरस्वती अष्टकम् ॥शा ॥२॥ स्मर्यमाणा जनैः सर्वैः वन्द्यमाना कवीश्वरैः। ध्यायमाना सुयोगीन्द्रैः स्तवीमि तां सरस्वतीम् ।। श्रुताब्धिगाढलीना या भवाब्धि परिशोषिणी। सर्वदा सर्वदा पूज्या स्तवीमि तां सरस्वतीम् पूर्णचन्द्ररसासिक्ता सुधास्वादैकदायिनी। अज्ञता-पापही या स्तवीमि तां सरस्वतीम् यत्प्रसादात् विना लोकः मूढतां हि समश्नुते। जडता-मोहान्धकारं वै स्तवीमि तां सरस्वतीम् विद्वद्वत्वं-सुमतित्वं च यत्कृपया सुलभ्यते। नम्रत्वं चाऽथवाग्मित्वं स्तवीमि तां सरस्वतीम् राजते कमलागर्भे राजहंसाधि सेविता। ।।३।। ॥४॥ ॥५॥ १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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