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________________ से युक्त काल को जिसकी कृपा से संसार में मनुष्य जान सकता है सो देवी मेरी इस ज्ञान प्राप्ति का विस्तार करे। यह (माता) गुरु है, गुरु का यह कल्याणकारक हित वाक्य है, अथवा सर्व लोकों का यह शुभ है (ऐसे) मुनिसमूह जिससे लोकमें सचमुच विलोकन करता है, यह देवी मेरे इस ज्ञान प्राप्ति का विस्तार करे। ॥८॥ ॥९॥ जिस सरस्वती के द्वारा बुद्धिरूपी धन को प्राप्त किया हुआ मूर्ख मनुष्य भी दुर्गति का त्याग करता है, और प्रतिदिन कल्याण में बुद्धि और गुण में आनन्द रखता है, वह देवी मेरी इस ज्ञान प्राप्ति का विस्तार करे। जिस की श्रेष्ठ भक्तिसे युक्त उत्तम मनुष्य का मन स्त्रीसमूह में सचमुच नहीं रमता लेकिन परमात्मा में ही रमता है, ऐसी वह देवी मेरी इस ज्ञान प्राप्ति का विस्तार करे। जिसकी उत्तमभक्ति से भरे मनुष्य की में विविध प्रकार के काव्य के लिए और अनेक अर्थ की विचारणा (विवेचना) में बुद्धि उत्पन्न होती है, वह (देवी) मेरी इस ज्ञान प्राप्ति का विस्तार करे।१० जो दिन-रात मन के भार से मुक्त होकर (स्तोत्र) पाठ करता है उस के भवरूपी समुद्र का अवश्य पार हो जाता है एवं जिनेंद्र के वचनों के सार रूप का हार बनकर हृदयमें जुड़ जाता है, श्री ज्ञानभूषण मुनिने यह स्तवन बनाया है। सितवस्त्रमालिनीं तां प्रणौम्यहं भारतीं भव्यां ॥५॥ विशदाभरणविभूषां निर्मलदर्शनविशुद्धबोधवरां। सुरगीतरते महिषीं नमाम्यहं शारदाजननीम् यस्या ध्यानं दिव्यानन्दनिदानं विवेकिमनुजानां । संघोन्नतिकटिबद्धां भाषां ध्यायामि तां नित्यम् ||७|| प्रस्थानस्मृतिकाले भावाचार्याः निवेश्य यां चित्ते। कुर्वन्ति संघभद्रं वाणी तां प्रणिदधेऽनु दिनम् श्रुतसागरपारेष्टप्रदान-चिंतामणिं महाशक्तिं। दिव्यांगकांतिदीप्तां मरालवाहनां नौमि पुस्तकमालालङकृतदक्षिणहस्तां प्रशस्तशशिवदनां। . पङ्कजवीणालङ्कृत - वामकरां भगवतीं नौमि ॥१०॥ वागीश्वरि ! प्रसन्ना त्वं भव करुणां विधाय मयि विपुलां। येनाश्नुवे कवित्वं निखिलागमतत्त्वविज्ञानम् ॥११॥ ॐ ह्रीं क्लीं वाग्वादिनि ! वद वद मातः सरस्वति प्रौढे! तुभ्यं नमो जपन्त्वि - त्येतन्मन्त्रं सदा भव्या: ॥१२॥ मंत्रानुभावसिद्धा मलयगिरि हेमचंद्रदेवेन्द्रौ। श्रीवृद्धमल्ल-पूज्यो षष्ठो श्री बप्पभगुरुः ॥१३॥ त्वत्करुणामृतसिक्ता एते षट् सभ्यमान्यसद्वचना: । जाता: शासनभासनदक्षास्तत्वामहं स्तौमि ॥१४॥ त्वत्पदसेवायोगो हंसोऽपि विवेकमान्महीविदितः । येषां हृदि तव पादौ भाषे पुनरत्र किं तेषाम् ॥१५॥ स्पष्टं वद वद मातः हंस इव त्वत्पदाम्बुजे चपलं । हृदयं कदा प्रसन्नं निरतं संपत्स्यते नितराम् ॥१६॥ रससंचारणकुशलां ग्रन्थादौ यां प्रणम्य विद्वांसः। सानन्दग्रन्थपूर्तिमश्नुवते तां स्तुवे जननीम् ॥१७॥ प्रवराऽजारी ग्रामे शत्रुञ्जय-रैवतादितीर्थेषु । राजनगर रांतेजे स्थितां स्तुवे पत्तनेऽपि तथा ॥१८॥ अतुलस्तवप्रभाव: सुरसंदोहस्तु ते मया बहुशः । अनुभूतो गुरुमंत्रध्यानावसरे विधानाढ्ये ॥१९॥ ते पुण्यशालिधन्या विशालकीर्तिप्रतापसत्त्वधराः । कल्याणकांतयस्ते ये त्वां मनसि स्मरन्ति नराः ॥२०॥ विपुला बुद्धिस्तेषां मंगलमाला सदामहानन्दः । ये त्वदनुग्रहसारा: कमला विमला भवेत्तेषाम् ॥२१॥ गुणनंदनिधीन्दुसमे श्रीगौतमकेवलाप्तिपुण्यदिने। श्री जिनशासनरसिके जैनपुरी राजनगरवरे ॥२२॥ समाप्तम्। 30 श्री पद्मसूरीश्वरविरचितंश्रीसरस्वतीस्तोत्रम् ॥ आर्याच्छंदः। ॥१॥ ॥२॥ श्रीस्तंभनपतिपार्श्व नत्वा गुरुवर्यनेमिसूरिवरं। प्रणमामि भक्तिभावत: सरस्वती स्तोत्रमुन्नतिदं सदतिशयान्वितरुपा जिनपतिवदनाब्जवासिनी रम्या। नयभंगमानभावा प्रभुवाणी साऽस्तु वो वरदा तदधिष्ठायकभावं प्राप्ता श्रुतदेवता चतुष्पाणिः । श्री गौतमपदभक्ता सरस्वती साऽस्तु वो वरदा प्रवचनभक्ता: भव्या यां स्मृत्वा प्राप्नुवन्ति वरबुद्धिं । कमलासने निषण्णा सरस्वती साऽस्तु वो वरदा विघ्नोत्सर्जननिपुणामज्ञानतमोऽपहां विशदवर्णा । ॥३॥ ॥४॥ ९४ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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