SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रंथके गर्भद्वार पर श्रुताधिष्ठात्री की उपासना से सम्यक्त्व प्रगटायें प्रत्येक व्यक्तिको अपने जीवनमें कोई न कोई 'इष्ट' तत्त्व होता है। वह जो 'इष्ट'की उपासना करता है, जो भावसे करता है उस भाव से 'इष्ट' का वह तत्त्व व्यक्तिमें संक्रान्त होता है, विनियोग पाता है। जैसे की महावीर महाराजाने उत्कृष्ट कोटिके तप किये थे, सो उनके उपासक गणमें उत्कृष्ट तप करनेकी शक्ति लीलामात्र में आती है। व्यक्तिकी देहशक्ति मर्यादित होने पर भी वह, जो करता है। एवं सिद्धि पाता है, वो उस उपास्य तत्वका प्रभाव है। उपासनाशक्ति से उपास्य शक्ति अधिक सक्रिय होती है। चिरकाल टीकनेवाली होती है । पर उनकी उपासना सद्यः लाभदायिनी बनी रहती है। यह उपासना पूजा सामान्यत: चार प्रकार से होती है। पुष्पपूजा - चंदनपूजा - स्तवनपूजा - और ध्यानपूजा। ध्यानपूजा के दो प्रकार है - आलंबन ध्यान और निरालंबन ध्यान। आलंबन ध्यान दो प्रकार के होते है। आकृतिध्यान और अक्षरध्यान, आकृतिध्यान से प्रारंभ होता है फिर उतना ही आनंद अक्षरध्यान द्वारा आता है। आकृतिध्यान- अक्षरध्यान जैसा ही एक ज्यादा / बहुत असरकारक वर्णध्यान है। उन उन कार्य के लिये उन उन वर्णो का ध्यान वह वह कार्य करनेमे शीघ्र समर्थ बनता है। यह वर्ण विज्ञान (color science) स्वतंत्र विषय है। जिन-जिन रोगो को दर करने के लिये सूर्यकिरणोंको उस उस वर्णो में रुपांतरित करनेसे दर्दी यदि उसका सेवन करे तो वह रोग निर्मूल होनेके द्रष्टांतो की नोंध की गई है। इस वर्णध्यानमें ही अंतमें धाम-तेजोवलय का ध्यान किया जाता है। यह ज्योतिस्वरुप होता है। परमतत्व विषयक हो तो वह परमात्म ज्योति कहा जाता है और सरस्वती देवीका हो तो वह सारस्वत धाम कहा जाता है। इसी तरह आलंबन ध्यान प्रणिधान भी दो प्रकारनका है संभेद प्रणिधान और अभेद प्रणिधान। उस इष्ट' तत्त्व का ही सर्वत्र दर्शन हो वह संभेद-प्रणिधान, एवं स्व (आत्मा)में इष्ट तत्व का सर्वत्र दर्शन हो - अनुभूति हो, वह अभेद प्रणिधान। महाकवियों सिद्धसेन दिवाकरजी, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजी - कवि कालीदास वगैरह को अभेद प्रणिधान सिद्ध हुआ होगा ऐसा अनुमान है। ऐसे इष्ट तत्त्व, यहाँ प्रस्तुत श्री श्रुताधिष्ठात्री भगवती शारदादेवी के स्तोत्र - स्तुति- आम्नाय - जापविधि आदिका संग्रह मुनि श्री कलचन्द्रविजयजी महाराजने बहुत सारे परिश्रमसे किया है। इस तरह एक साथ एक विषय के प्राप्य सकल स्तोत्रों - स्तुति आदिका संग्रह (प्रस्तुतकर) श्रुतदेवताके अनुरागी भक्तजनों को उपकृत किये है। कभीकभी नाम-जाप से भी स्तोत्र-पाठ शीघ्र - फलदायी होता है। कई लोगोके मनमें प्रश्न उठता है हमारे में ज्ञान क्यो बढ़ते नहि है ?' बुद्धिमें जड़ता का प्रमाण अधिक है, ऐसी परिस्थिति में श्री सरस्वती देवी की उपासना कैसे लाभ करें ? इसका तार्किक तर्कसिद्ध उत्तर पूज्यपाद उपाध्यायजी म.सा. श्री यशोविजयजी महाराजाने दिया है। यह रहा वो उत्तर... नच देवता प्रसादात् अज्ञानोच्छेदासिद्धिः तस्य कर्म विशेष विलयाधीनत्वादिति वाच्यम्। देवता प्रसादस्यादिक्षयोपशमाधापकत्वेन् तथात्वात् द्रव्यादिकं प्रतीत्य क्षयोपशम प्रसिद्धः।। (ऐन्द्र स्तुतिवृत्ती) देवताके प्रसाद से अज्ञानका उच्छेद नहि होता ऐसा नही है। क्योंकि अज्ञान तो ज्ञानावरणीय कर्मोंके क्षयोपशम आधीन है। (तो प्रश्न यह होता है की देवताके प्रसादसे ज्ञानावरणीय कर्मोका क्षयोपशम कैसे हो सकता?) देवता के प्रसादसे कर्म का क्षयोपशम हो सकता है जैसे ब्राह्मी आदि औषधि द्रव्योका सेवनसे क्षयोपशम होता है वैसे. यह बात प्रसिद्ध ही है एवं यह बहुत तर्कसंगत उत्तर है। और यह सरस्वती देवी श्री सूरिमंत्र की पाँचो पीठमें पहली पीठकी अधिष्ठायिका देवी है, इस तरह वह भी उपास्य बनी रही है। इसलिये यह पुस्तकगत स्तोत्र समूह का निर्मल मनसे पठन करके, उसका श्रवण-मनन करके अपने श्रुतका ऐसा क्षयोपशम विकसायें कि उसीसे सम्यग्दर्शन नामक आत्माके आवृत महागुण प्रकटे यही एक हृदयाभिलाषा सह..... आ. श्री. वि. हेमचंद्रसूरिपदपंकज मधुकर प्रधुम्न सूरि. आंबावाडी जैन उपाश्रय अहमदाबाद -१५-का. व. १०,२०५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy