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________________ २५ अनुवाद जिसके चरण वेग से शोभायमान भक्ति से सज्जित देवगण के मुकटों के रत्नों की फैलती हुई आभा से झगमगाते हैं, जिसकी सैंकडों कवियोंने स्तुति की है, त्रिभुवन के वन में स्फुरित होते हुए मोह के अंकुरां के लिए जो कुल्हाडी के समान है उस सरस्वती देवी की मैं सचमुच भक्तिपूर्वक स्तवना करूँगा। तुम्हारे मनोहर अनन्त गुणों के ज्ञाता, निपुण बुद्धि वाले बहस्पति जैसे भी स्तवनमें मौन हो जाते हैं। स्वयंभूरमणसमुद्र के जलकणों को गिनने के लिए चिरजीवी वे बुद्धिमान भी कुछ भी व्यक्त करनेमे समर्थ हो सकते हैं ? २. (ऐसा जानता हूँ) फिर भी तुम्हारे गुण-समूह के अंश का भी कीर्तन करने से मेरा इच्छित पूर्ण होगा। ऐसी इच्छासे मैंने तुम्हारी ग्तवना में बुद्धि लगाई है। जिसमें मति लेशमात्र भी नहीं है, ऐसे व्यक्ति का चित्त, जब हृदय में वृद्धिंगत मनोरथो के कारण आकल बनता है, तब कहीं कुछ भी समझने को वह तैयार नहीं होता ?३. चिंता करने में क्लेश करानेवाला चिंतामणि, कल्पलता आदि कितना मनोवांछित दे सकते हैं ? जब कि तुम्हारा अतिसुन्दर पाद युग्म तो निष्पापसम्पदा को बढ़ाता हुआ अचिन्त्य रीति से जगतमें फल देता है। हाथ में श्वेतकमल धारणकरनेवाली, दिशाओं में फैलते हुए अपनी कायाके श्वेतप्रभा-पटलरूप जल में विकसित विशाल कमल में वास करनेवाली ! तुझे विनम्र देवता मनुष्य क्षीरसमुद्र के उज्ज्वल जल में उल्लसित निर्मल कमल में विराजमान लक्ष्मी की भ्रांति जैसे देखते हैं। कुंडल मानों हिमालय के श्वेत शिखरों पर झूलते हुए सूर्य-चन्द्र न हो, ऐसे शोभायमान हैं। तुम्हारे वक्षः स्थल पर रहे हुए उदार कांतिवाले हार को देखकर लोग चित्र विचित्र संदेह करते हैं कि क्या यह हार तुम्हारे मुख, चन्द्र रूपी स्वामी की सेवा के लिए आयी हुब नक्षत्र मंडली है ? या तीनों भुवनों के लिए स्तुति करने योग्य, वाणी की देवी ऐसी तुम को प्रसन्न करने के लिए आये हुए सप्तर्षि हैं ? या तुम्हारी श्वेत कांतिमय काया से झरते हुए लावण्य के जलकणों का पुंज है ? या तुम्हारे हृदय में से ज्ञान-रूपी अंकुर फूट निकले हैं ? या कि तुम्हारे मुखरुपी चंद्रमा में से झरती हुई अमृत की छटा है ? सरस्वती के मुख के अपनी कांति पराजित हो जाने से लजित हुए चन्द्र ने मुझे छोड़ दिया है तो भी मैं देवी के करकमल में उच्च स्थान पर रहा हुआ हूँ और कुवलय को जीतनेवाले देवी के नयनों के निकट हूँ। मानो यही सोचकर देवी के करकमलमें बसे हुए कमल खिलकर चमक रहा है। ४. दुरित-रूपी मल को भेदनेवाली, ताप को दूर करने वाली, सुरअसुरों की सुन्दरियों विनम्र मस्तक पर शोभती हुई किरणों से झगमगाती हुई, सैंकडों कबरियों वाली, सुन्दर बालों की लटरूपी कमलवाली, लावण्यके उछलते हुए जल प्रवाहवाले तुम्हारे पाद युग्म की नदी मद की नवीन उत्पत्ति रूपी तृषा को नष्ट करे। १२. दिशाओं को उज्ज्वल करती हुई, समग्र आकाश के अवकाश में फैली हुई, हाथीदांतके कटे हुए उज्ज्वल खंड की प्रभा को जीतने वाली, तुम्हारे मुखरूपी चन्द्र की ज्योत्स्ना को चकोर के समान तृषातुर होकर कोई धन्यपुरुष ही नमन की अंजलि से पान करता है। १३. तुम्हारा नाम, हृदय में उत्पन्न विविध प्रकार की बुद्धि की अन्धता के अन्धकार के विस्तार को छिन्न भिन्न करने में सूर्य के समान है। वह वन्दन करनेवाले की वराकता (दीनता) को विशीर्ण करता है एवं जडता के विशालमयि पर्वतो की श्रेणीके जाननेवाला-को भेदनेवाला है। मनीषी गण तेरे नाम को ऐसा जानते हैं। १४. प्रणाम करती हुई सुर-सुन्दरीयों के परस्पर टकराने से, कानों में पहने हुए, नीचे गिरते हए, श्याम कमलों से छाये हुए, तुम्हारे चरणकमल, रस से अत्यन्त झरने लगे, इसमें आश्चर्य नहीं है, क्योंकि मलिनदेहवाले, अन्य की स्थिरस्वभाव वाली संपदा देखने में समर्थ नहीं होते। हे देवि ! यह बात तो भूतल पर प्रसिद्ध ही है कि तुमने अपने चरण युगल के स्थापन के द्वारा लक्ष्मी को रुकाकर उनके कमलके निलय में वास किया है, अतएव मैं मानता हूँ कि वह गुस्से होकर, अपना किराया वसूल करने के लिए ही मानो, तुम्हारे भक्तों के घर को क्षणभर भी नहीं छोड़ती। समस्त वांछित संपदा देनेवाले तेरे नाम को राजसेना में, यूत में, वाद में- विवाद में, क्रीडा काव्य में मदोन्मत्त कवियाँ या अन्य किसी भी विषम कार्य में जो याद करते हैं, उनका वह कार्य पूरी तेजी से उछलती हुई विजय के साथ उज्ज्वल बनता है। १५... ___ जगत में विबुध तुझे विविधरूप में सराहते हैं। तू कल्याणी है, शुभा है, विजया है, जया है, सुमनसी है, उमा है । सिद्धि-वृद्धि जयती एवं अपराजिता है। अभया-शान्ता-भद्रा मंगला तथा शिवा भी तू है। रति-मति-धृति-स्वस्ति-कीर्ति-तुष्टि और सुपुष्टि देनेवाली जिनकी किरणें कन्धों पर फैल रही हैं, वे कपोलों को स्पर्श करने के हेतु चन्द्र के समान कांतिवाले, तुम्हारे कानों के चंचल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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