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________________ १६. भी तू ही है। दुनियामें दुत्कारा हुआ तिरस्कृत, दीपक की जड़तासे जिसके वचन, श्रुति स्खलना पाते हैं, जिसके पास प्रज्ञा का अंश भी नहीं है, और जो प्रतिभाहीन है ऐसा व्यक्ति भी हे मां! यदि तेरे शरद ऋतु के चन्द्र के समान निर्मल रुप को हृदय में स्थिरता से धारण करता हैं, तो वह देदीप्यमान कीर्तिवाले बृहस्पति को भी निम्न दिखा सकता १७. है । तुम्हारे चिन्तनरूपी वशीकरण को जो सुबुद्धिमान अपने हृदय में धारण करते हैं उन्हें मृगशावक जैसे नयनोंवाली ललनाए लालित्यपूर्वक पीछे मुड़ कर देखती हुई, भोली एवं स्नेहमयी, मुंदती हुई पलकों के दोनेवाली, सुकुमार एवं मधुर, खिलती, फैलती तिरछी पुतलीवाली दृष्टि से निरन्तर पान करती है। १८. जो 'तुम्हारा स्मरण कर बोलता हैं उसका वचन-समूह-सरस ढंग से सजाये गये, चमकते हुए, सुन्दररीति से उच्चारित होते हुए पदों के कारण मनोहर होता है। विविध रसोंसे नानाप्रकार के इन्द्रों से एवं भाषा से चमकता है। विविध सुन्दर अलंकारों से अलंकृत होता है एवं श्रेष्ठ मधुरता बरसाते है। १९. तुम्हारा प्रसादकण, अन्धकार में सूर्य, भय में रक्षा, मरुस्थल में मेघ, शत्रु में संहार, दारिद्रय में निधान, भ्रान्ति में सदबुद्धि, साँप में गरुड, सत्रागार (भंडार) में अर्थसमूह, रोग में महौषधियाँ, विपत्तिमें, दयालु ऐसे विविध रूपोंमें दिखाई देता है। - २०. हे माँ! तू हर्षकी जननी है, कीर्त्ति की कारिका है, गुणश्रेणी की धारिका है, बुद्धि की वितरिका, इच्छित की दात्री है, लक्ष्मी को बढानेवाली है। अंधकारका हरण करनेवाली है, बुद्धिकी मंदता को काटती है, शत्रुसमूह का हनन करती है, इस तरह दीनतापूर्वक बोलते हुए मेरी बुद्धि की वृद्धि करो । २१. जगद विजयिनी जिसकी छाया है, ऐसे तेरे गुण समूह का कथन करने या जानने में हम असमर्थ हैं, लेकिन हे माँ ! सरस्वति ! तू ही मेरी वाणी को ऐसी पटु कर कि जिससे मैं तेरे गुण- गौरव का वर्णन करने में समर्थ बन जाऊं । २२. हे कवि समूह के चित्तरूपी सरोवरकी कलहंसिके ! गुणी जन के मानससागरकी चन्द्रकले ! जिनेश्वरप्रभु के वदनरूपी विकस्वर कमल की भ्रमरिके! विनम्र साधक के हृदयकमल को प्रफुल्लित करने में सूर्य की कांति के समान तुम्हारी जय हो ! २३. मुझे राज्य में रुचि नहीं, नम्र अन्य लक्ष्मीकी श्रेणी मुझे प्रिय नहीं, तेजस्विनी स्त्रियोंके समूहमें या उद्यमकी संपदा में मुझे आसक्ति नहीं, किंतु अंजलिबद्ध हाथ मस्तक पर लगाकर मैं इतना ही माँगता Jain Education International कि हे वाग्देवि ! हे माँ ! तू मुझ पर पूर्ण प्रसाद (कृपा) कर । २४. - मैंने मूढ बुद्धि ने भारती के अनुग्रह से ही इस प्रकार रची हुई है। उसकी स्तुति को जो श्रद्धालु स्थिरमन से अशठ भाव से पढता है। वह मनीषी जगत में श्रीमान- धीमान एवं पुण्यवान बनता है । २५. । समाप्तम् । २६ । श्री सरस्वती स्तोत्रम् । शार्दूल. ज्ञानानंदकरी सदा सुखकरी विश्वेश्वरी श्रीधरी, साक्षात् मोक्षकरी घाक्षयकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी । कौमारी कलुषो (पी) घ पावनकरी काशीपुराधीश्वरी, विद्यां देहि कृपाऽविलंबनकरी माता च हंसेश्वरी साक्षात्वृद्धिकरी तपः फलकरी विज्ञानदीपंकरी, काश्मीरी त्रिपुरेश्वरी हितकरी ब्रह्मांड भंडोदरी । स्वर्गद्वार - कपाट-पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी, विद्यां देहि कृपाऽ विलंबनकरी माता व हंसेश्वरी योगानंदकरी रिपुक्षयकरी सौंदर्यरत्नोत्करी, नानारत्नविचित्रभूषणधरी सद्ज्ञान-विद्येश्वरी । ब्रह्माणी खगवाहिनी भगवती काशी पुराधीश्वरी, विद्यां देहि कृपा विलंबनकरी माता च हंसेश्वरी वीणा पुस्तकपाशकांकुशधरी जाड्यांधकारोद्धरी, वाराही तु सरारिनाशनकरी ॐकार रुपाक्षरी । सर्वानंदकरी परा भयहरी काशी पुराधीश्वरी, विद्यां देहि कृपाऽविलंबनकरी माता च हंसेश्वरी पूर्णेन्दुद्युतिशालिनी जयकरी (ह्रीं ह्रीं कारमंत्राक्षरी, मातंगी विजया जया भगवती देवी शिवा शंकरी । सम्यग्ज्ञानकरी ध्रुवं शिवकरी काशीपुराधीश्वरी, विद्यां देखिकृपाऽविलंबनकरी माता च हंसश्वरी सर्वारंभकरी गदक्षयकरी सद्धर्म-मार्गेश्वरी, रूपारूपप्रकाशिनी विजयिनी लक्ष्मीकरी धी: करी । धर्मोद्यतकरी सुधारसभरी काशी पुराधीश्वरी, विद्यां देहि कृपाऽविलंबनकरी माता च हंसेश्वरी नानालोक - विचित्रभासनकरी ऍकार बीजाक्षरी, चन्द्रार्कद्युति कर्णकुंडलधरी श्रीकार वागीश्वरी । ब्रह्मज्ञानकरीयशः शुभकरी काशीपुराधीश्वरी, ६० For Private & Personal Use Only ॥१॥ ||२|| ||३|| ||४|| ॥५॥ ||६|| www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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