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________________ ९२ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ इसि प्रकारे श्रीहरिभसूरिजीने पंचवस्तु शास्त्रमें आचरणासें श्रुतदेवता और क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करना कहा है, तो यह श्रुतदेवता अरु क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्गकरण रुप आचरणा पूर्वधारियोंके समयमें भी चलती थी तिस्का स्वरुप विचारामृत संग्रह ग्रंथकी साक्षीसें उपर लिख आये है. तो पूर्वधारियोंकी आचरणाका निषेध करना यह महा अनर्थका मूल है, निषेध करनेवाले श्रीरत्नविजयादि ऐसे नही सोचते होवेगे के, हम तुच्छबुद्धिवाले होकर पूर्वधारियोंकी आचरणाका निषेध करके कौनसी गतिमें जावेगे !! (३२) तथा श्रीवृंदारुवृत्तिका पाठ लिखते है. एवमेतत्पठित्वोपचितपुण्यसंभार उचितेष्वौचित्यप्रवृत्त्यर्थ मिदमाह वेयावच्चगिराणमित्यादि ॥ वैयावृत्त्यकराणां प्रवचनार्थं व्याष्टतभावानां गोमुखयक्षादीनां शांतिकराणां सर्वलोकस्य सम्यग्दृष्टिविषये समाधिकराणां एषां संबंधिना ष्ठया सप्तम्यर्थत्वादेतद्विषयं वा आश्रित्य करोमि ॥ कायोत्सर्ग अत्र वंदणवत्तियाए इत्यादि न पठ्यते तेषामविरतत्वात् अन्यत्रोच्छसितेनेत्यादि पूर्ववत् । ततः एषां स्तुति भणित्वा प्रागुक्तवच्छक्रस्तवं च ॥ प्रतिक्रमणविधिश्च योगशास्त्रवृत्त्यंतर्गताभ्यः चिरंतनाचार्यप्रणीताभ्यो गाथाभ्योऽवसेयः । पंच विहायार विसुद्धिहेउमिह साहु सावगो वावि पडिक्कमणं सह गुरुणा, गुरुविरहे कुणइ इक्को वि ॥१॥ वंदित्तु चेइयाइं, दाउं चउराइए खमासमणे ॥ भूमिनिहिअसिरो सयलाइआर मिच्छोक्कडं देई ॥२॥ सामाइय पुव्वमिच्छा, मिछाइडं काउसग्गमिच्चाइ ॥ सुत्तं भणि अ परंविअ, भूअकुप्पर धरिअ पहिरणओ ॥३॥ घोडगमाई दोसेहि, विरहियंतो करेइ उस्सग्गं ॥ नाहि अहो जाणूळ, चउरंगुलछड्अ कडिपट्टो ॥४॥ तच्छयधरेई हिअए, जहक्कम दिणकए अईआरे ॥ पारेत्तु णमोक्कारे, ण पडइ चउरंगुलछइअ कडिपट्टो ॥४॥ तत्थयधरेई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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