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________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १ आवश्यकचूर्णौ स्थापनार्हत्स्तवचतुर्विंशति- स्तवश्रुतस्तवाः स्तुतयः प्रोक्ताः एते मध्यम चैत्यवंदनाया भेदा उत्कृष्टा विधिपूर्वकशक्रस्तवपंचनिर्मिताः । तथा उत्कृष्टा तु शक्रस्तवादिपंचदंडकनिर्मिताः जयवीयरायेत्यादिप्रणिधानान्ता चैत्यवंदना स्यात्, अन्ये तु शक्रस्तवपंचकयुतामाहुः । तत्र वारद्वयं चैत्यवंदना प्रवेशत्रयं निष्क्रमणद्वयं चेति पंचशक्रस्तवी ॥६४॥ ९० इसी रीतीसे पाटणनगरके फोफलियावाडाके भंडारमें पूर्वाचार्यकृत समाचारी और यतिदिनचर्यामें प्रतिक्रमणकी आदिमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुतदेवता क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा कहा है और श्रीभावदेवसूरिजीने यतिदिनचर्यामें प्रतिक्रमणमें चार थुइकी चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुतदेवता अरु क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग और थुइ कहनी कही है तथा चैत्यवंदनाके मध्यमोत्कृष्ट भेदमेंभी चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है ॥ (३१) तथा पंचवस्तु ग्रंथमें इस मुजब पाठ है सो लिखते है | थुइ मंगलंमि गुरुणा, उच्चरिए सेसे १ सगा थुई बिंति ॥ चि ंति तओथेवं, कालं गुरु पाय मूलम्मि ॥९०॥ व्याख्या || स्तुतिमंगले गुरुणा आचार्येण उच्चारिते सति ततः शेषाः साधवः स्तुतिर्बुवते ददतीत्यर्थः । तिष्ठति ततः प्रतिक्रांतानंतरं स्तोकं कालं क्याह गुरुपादमूले आचार्यांतिके इति गाथार्थः । प्रयोजनमाह । पम्हे छमे रसायणओ उफेडिओ हवइ एवं || आयरणासु अ देवय, माइणं होइ उस्सग्गो ॥९१॥ तत्र विस्मृतं स्मरणं भवति विनयश्च फटितो नामतीतो भवत्येव उपकार्यासेवनेन एतावत्प्रतिक्रमणं आचरणात् श्रुतदेवतादीनां भवति कायोत्सर्गः । अत्र आदि शब्दात् क्षेत्रभवनदेवतापरिग्रहः । इति गाथार्थः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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