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________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १ अस्यभाषा | भगवंत श्रीमहावीरजीके निर्वाणसें हजार वर्ष व्यतीत हूए पूर्वश्रुतका व्यवच्छेद हूआ, तदपीछे पचपन (५५) वर्ष वीते श्रीहरिभद्रसूरिजी स्वर्ग प्राप्त हुए, वो श्रीहरिभद्रसूरिजी ग्रंथकरण कालसें पहिलाही आचरणा चलती थी इस वास्ते श्रुतदेवतादिकका कायोत्सर्ग पूर्व कालमें भी संभव था । अब विचारणा चाहिये के पूर्वधरोंकी अंगीकार करी हूइ आचरणाका निषेध करणेवाला दीर्घ संसारी विना अन्य कौन हो सकता है ? जैसे चोथी थुइभी हरिभद्रसूरिजीके ग्रंथ करणेसें प्रथमही पूर्वधरोंकी आचरणासें चलती थी क्योंके हरिभद्रसूरिकृत ललितविस्तरामें चौथी थुइका पाठ है, सो पाठ आगें लिखेंगे इस वास्ते अर्वाचीन कहो, चाहे आचरणा कहो, चाहे जीत कहो । जेकर अर्वाचीन शब्दका अर्थ अन्यथा करीयें तो श्रीसिद्धसेनाचार्यकृत प्रवचनसारोद्धारकी टीका के साथ विरोध होता है, क्योंके श्रीसिद्धसेनाचार्ये चौथी थुइ आचरणासें करणी कही है । ( ९ ) तथा कोइ औसें कहेके ललितविस्तरा १४४४ ग्रंथोंके करनेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजीकी करी हूइ नही है। किंतु अन्य किसी नवीन श्रीहरिभद्रसूरिजीकी रचित है, यह कहनाभी महामिथ्या है, क्योंके पंचाशककी टीकामें श्रीअभयदेवसूरिजी लिखते है के, जो ग्रंथ श्रीहरिभद्रसूरिजीका करा हुआ है, तिसके अंतमें प्रायें विरह शब्द है, ॥ पंचाशक पाठः ॥ इह च विरह इति । सितांबर श्रीहरिभद्राचार्यस्य कृतेरंक इति ॥ यह विरह अंक ललितविस्तराके अंतमें है । और याकनी महत्तराके पुत्र श्रीहरिभद्रसूरिनें यह ललितविस्तरा वृत्ति रची है, औसाभी पाठ है तो फेर ललितविस्तरा प्राचीन हरिभद्रसूरिकृत नही, औसा वचन उन्मत्त विना अन्य कोइ कह सक्ता नही है । ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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