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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ गच्छैकमंडन आचार्य श्रीवादिवेताल शांतिसूरिजीने संघाचार नामक चैत्यवंदन महाभाष्य करा है, तिसमें आचरणाका स्वरुप ऐसा लिखा है।
भाष्यपाठः ॥ तीसेकरणविहाणं, नज्जइ सुत्ताणुसारओ किंपि ॥ संविग्गायरणाओ, किंचीओ भयंपि तं भणिमो ॥१५॥ पुच्छइ सीसो भयवं, सुत्तो इयमेव साहिओ जुत्तं ॥ किं वंदणाहिगारे, आयरणा कीरइ सहाया ॥१६॥ दीसइ सामन्नेण, वुत्तं सुत्तंमि वंदणविहाणं ॥ नज्जइ आयरणाउ, विसेस करणक्कमो तस्स ॥१७॥ सुयणमेत्तं सुत्तं, आयरणाओय गम्मइ तयच्छो ॥ सीसायरियकमेणहि, नज्जंते सिप्पसच्छाई ॥१८॥ अन्नंच ॥ अंगो वंग पइन्नय, भेया सुअसागरे खलु अपारो ॥ को तस्स मुणइ मच्छं, पुरिसो पंडिच्चमाणी वि ॥१९॥ किंतु सुहणाण जण गं, जं कम्मखयावहं अणुठाणं ॥ अंगसमुद्दे रुंदे, भणियं चियतं जउ भणियं ॥२०॥ सव्व प्पवायमूलं दुवालसंग जउ समरकायं ॥ रयणायरतुल्लं कलु, ता सव्वं सुंदरं तंमि ॥२१॥ वोच्छिन्ने मूलसुए बिंदुपमाणंमि संपइ धरते ॥ आयरणाओ नज्जइ, परमच्छो सव्वकज्जेसु ॥२२॥ भणियं च ॥ बहुसुय कमाणुपत्ता, आयरणा धरइ सुत्त विरहेवि ॥ विज्जाए विपईवे, नज्जइ द्दिष्टुं सुदिट्ठीहिं ॥२३॥ जीवियपुव्वं जीवइं, जीविस्सइ जेण धम्मिय जणंमि ॥ जीयंति तेण भन्नइ, आयरणा समय कुसलेहिं ॥२४॥ तम्हा अनाय मूला, हिंसारहिया सुजाण जणणीय ॥ सूरि परं परपत्ता, सुत्तव्वपमाण मायरणा ॥२५॥
(७) व्याख्या:- तिस चैत्यवंदना करनेके भिन्नप्रकारका विधिभेद कितनेक तो सूत्रानुसार जाने जाते है, और कितनेक संविग्र गीतार्थोंकी आचरणासें जाने जाते है, अरु कितनेक पूर्वोक्त दोनोसें जाने जाते है, यह तीन प्रकारसें मैं चैत्यवंदनाका स्वरुप कहता हूं ॥१५॥
शिष्य पूछता है के, भगवन् सूत्रकी वार्ताही कहनी युक्त है, क्यों तुम
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