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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २
शील पालना चाहती है, परंतु रंडुए नही पालन देते है । यह धनविजय थोडे दिनोंकी योगिनी सर्व संवेगी साधुवोंकी निंदा करता है, इस वास्ते इसकों जैनमतके शास्त्रानुसार दुर्लभबोधी होनाभी कठिन नही है, इस पोथीके लेखसें यहभी सिद्ध होता है कि, धनविजयकों प्राकृत संस्कृत व्याकरणकाभी यथार्थ बोध नही है । इस पलालपुंज समान थोथी पोथीमें इसने स्वकपोल कल्पित झूठ और चूर्णि टीकाके भाषामें झूठे अर्थ लिखनेकी कसर नही रखी है । सो कितनीही इसकी झूठी कल्पना हमने लिख दीखलाइ ही है, शेष इसकी झूठी कल्पना सुझ जन आपही वांच देख लेवेंगे । परंतु, पंदर वा १५ परिच्छेदमें पृष्ट ६१८ से लेके समाप्ति पर्यंत तो इसने इतना झूठ लिखा है, और इतनी अपनी अज्ञता, निर्विवेकताकी सूचना करी है कि, जिस्से जैनधर्मी, वा अन्यमतवाले सुबोध पुरुष इसकों धिक्कार दीया विना कदापि न रहेंगे। और इसकों, महाव्रती, सत्यवादी, भवभीरु, यथार्थ अक्षरके बोधवालाभी कदापि नही मानेंगे। और ऐसे मिथ्या लेख लिखनेवाले धनविजय राजेंद्रसूरिको, महाव्रती, सत्यवक्ता, सत्यलेखक, जो इनोंकें कहे तीन थुइ रुप कुपंथके माननेवाले श्रावक, वे भी बिचारे इनके वचनों पर प्रतीति करके भव समुद्रमें अवश्य भ्रमण करेंगे. इस वास्ते जो इनोंने पंदरवे १५ परिच्छेदमें महामृषावाद रुप उत्सूत्र लिखा है, सो भव्य जीवोकी और इनके पक्षी श्रावकोंकी मनमें दया लाके लिखते है कि, जिस्सें बिचारे भोले जीव इन उत्सूत्रीयोंका झूठा लेख सत्य मानके संसारमें भ्रमण न करें ॥
(५१) तथा च तत्पाठः || सुयदेवयाए आसायणाएत्ति सुयदेवया जीए सुयमहिट्ठि अंतीए आसायणा नत्थि सा अकिंचित्करीवा एवमादि
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