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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ करके, और प्रणिधान पाठ करके, होती है चोथी थूइ अर्वाचीन है, इसी वास्ते ग्रहण करी नही तब क्या हुआ, यह उत्कृष्टी चैत्यवंदना हुइ ॥३।।
(५) यह व्याख्यान कोईएक तो 'तिण्णि वा कट्टई जाव, थुइओ तिसिलोगिया ॥ ताव तत्थ अणुनायं, कारणेण परेणवि ॥१॥ इस कल्पभाष्य गाथाकों “पणिहाणं मुत्त सुत्तिए" इस वचनकों आश्रित्य होकर करते है।
अन्य ऐसे कहते हैं के पंचशक्रस्तवपाठसहित संपूर्ण चैत्यवंदना होती है । विधि करके पंचविध अभिगम, तीन प्रदक्षिणा, पूजादि लक्षण विधान करके, खलु शब्द वाक्यालंकारमें है, वा अवधारणमें है, तिसका प्रयोग आगें दिखलाउंगा जैसें चैत्यवंदना तीन प्रकारें है।
उपर लिखेका सारार्थ यह है के कल्पभाष्य गाथाके अनुसारसे कोइ एक तो मध्यम चैत्यवंदनाका स्वरुप पंचदंडक और चार थुईके पढनेसें मानता है ॥१॥ और कोइक तो पंच दंडक अरु तीन थुई अरु प्रणिधान पाठ सहित पढेसें उत्कृष्ट चैत्यवंदना मानता है, और चोथी थुईकों अर्वाचीन मानके तिसका ग्रहण नही करता है ॥२॥ और कोइक तो पांच शक्रस्तव, आठथुईकी चैत्यवंदना अरु पंच अभिगम, तीन प्रदक्षिणा, पूजादि संयुक्त इसकों उत्कृष्ट चैत्यवंदना मानता है ॥३॥ _ यह तीन मत अभयदेवसूरिजीने दिखलाए हैं परंतु इन तीनो मतोमेंसें अभयदेवसूरिजीने सम्मत वा असम्मत कोइभी मतकों नही कहा हैं । तो फेर रत्नविजयजी अरु धनविजयजी क्यों कहेते हैं के अभयदेवसूरिजीने पंचाशकमें चोथी थुई अर्वाचीन कही है। भला, कदापि ऐसा कहना साक्षर सुबोध पुरुषोंका हो शक्ता है । क्योंके अभयदेवसूरिजीनें तो किसीके मतकी अपेक्षासें चोथी थुई अर्वाचीन कही है, परंतु स्वमतसम्मत न कही है।
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