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________________ ३४४ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ भी, बैंकाक शब्द उच्चारने वाले दुर्विदग्धका लिखा है। (४७) तथा इस श्रीधनविजयजीने आदिसें लेकर अंत पर्यंत जो कुछ अपनी महत्तता लोकोंमें जनावने के वास्ते स्वकल्पनासें पलालभूत पोथी लिखनेका परिश्रम करा है, सो सर्व ही निष्फल है । क्यों कि, इसने किसी जगे भी पूर्वाचार्योका रचा एसा लेख नही लिखा है की प्रतिक्रमणकी आद्यंतकी चैत्यवंदनामें चार ४ थुइकी चैत्यवंदना नही करनी; और जघन्य प्रकारे, जघन्योत्कृष्ट प्रकारे इतने दंडक, और इतनी थुइयोंसें चैत्यवंदना करनी । इस वास्ते पूर्वोक्त पूर्वाचार्योके लेख बिना इसकी सर्व पोथी रचने का महेनत व्यर्थ है. और थुइयोंसें चैत्यवंदना, अथवा आठ थुइयोंसें चैत्यवंदना जिनमंदिरादिमें करणी ऐसा लेख इसने अपने हाथोंसेही इस पोथीमें बहुत जगे लिखा है; परंतु तीन थुइसें, वा ६ थुइसेही जिनमंदिरोमें चैत्यवंदना करणी; चार थुइसें वा आठ थुइसे जिनमंदिरादिमें चैत्यवंदना नही करनी; ऐसी पूर्वाचार्योके लेख लिखे बिना जितनी इसनें स्वकपोल कल्पनासें गडबड लिखके पोथी भरी है, सो सुझ पुरुषोंकों मान्य करने योग्य नही है। और तपागच्छाधिराज श्री जयचंद्रसूरि कृत प्रतिक्रमणगर्भ हेतुमें, तथा श्रीमद्यशोविजयोपाध्याय कृत प्रतिक्रमणगर्भ हेतु स्वाध्यायमें तथा खरतरगच्छाचार्य श्री जिनप्रभसूरिकृत विधिप्रपामें तथा बृहत् खरतरगच्छकी समाचारीमें, प्रगटपणे देवसि प्रतिक्रमणकी आदिमें चार थुइकी चैत्यवंदना लिखी है । तथा उपकेशगच्छ, तपगच्छ, खरतरगच्छमें परंपरासें देवसि प्रतिक्रमणकी आदिमें चतुर्विध श्रीसंघ ४ चार थुइसें चैत्यवंदना करते है । इन सर्वकों झूठ करने वास्ते धनविजयने जो स्वकपोल कल्पना करी है, सो भी सुज्ञ जनोंको तिरस्कार करने योग्य है, और जो इसने राजेंद्रसूरिके गुरु, तथा दादगुरु आदि अनाचारी षट्कायके हिंसक परिग्रहधारीयोंको संयमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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