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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
प्रवचनकार्यानुपयोगिभिश्चेत्यादिकं इहोत्तरं संति देवास्तत्कृतानुग्रहोपघातादिदर्शनात् कामासक्ताश्च मोहशातकर्मोदयादित्यादि । अभिहितं च । एत्थ पसिद्धीमोहणी, यसायवेयणियकम्मउदयाओ ॥ कामसत्ताविरई, कम्मोदयओवियनतेसिं ॥१॥ अणमिसदेवसहावो, निचेठाणुत्तराइकयकिच्च ॥ कालाणुभावतित्थु ण्णइंपि अन्नत्थ कुव्वंतित्ति ॥२॥ तथा अर्हतां वर्णवादो यथा । जियरागदोसमोहा, सव्वनुतियसनाहकयपूया ॥ अच्चंतसच्चवयणा, सिवगइगमणा जयंति जिणा ॥१॥ इति अर्हत्प्रणीतधर्मवर्णो यथा । वत्थु पयासणसूरो, अइसयरयणाणसायरो जयई ॥ सव्वजयजीवबंधुर, बंधूदविहोइ जिणधम्मो ॥२॥ आचार्यवर्णवादो यथा । तेसि नमो तेसि नमो, भावेण पुणो । व तेसि चेव नमो ॥ अणुवकयपरहियरया, जे नाणं देंति भव्वाणं ॥३॥ चतुर्वर्णश्रमणसंघवर्णों यथा । एयंमि पूइयंमि, नत्थि तय जं न पूइयं होई ॥ नवणेवि पूयणिज्झो, न गुणी संघाउ जं अन्नो ॥१॥ देववर्णवादो यथा । देवाण अहो सीलं, विसयविस मोहिया वि जिणभवणे ॥ अच्छरसाहिपि समं, हासाई जेण नकरंतित्ति ॥१॥
(७३) ईस ठाणांगके पाठमें प्रथम पाठके पांचमे स्थान मे लिखा है कि देवतायोंके जो अवर्णवाद बोले सो दुर्लभबोधि पणेका कर्म उपार्जन करे. तिसकी टिकाकी भाषा यहां कहते है. तथा (विपक्वं) अतिशय करके पर्यंतको प्राप्त हुआ है तप और ब्रह्मचर्य भवांतरमें जिनका अथवा (विपक्कं के०) उदय प्राप्त हूवा है तप और ब्रह्मचर्यरुप हेतुसें देवताका आउष्कादि कर्म जिनके, तिन देवतायोंका अवर्णवाद बोले. यथा कदापि देखनेमें न आवनेसें देवताही नही है, जेकर होवेंगेभी तो वेभी विट पुरुष अर्थात् अत्यंत कामी पुरुषकी तरें, कामासक्त होनेसें, किस कामके है ? तथा वो
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