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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १
है तब तो जिस कथनसें इनोंका मत सिद्ध हो जावे वो कथन जिस ग्रंथमें होवे तिस कथनकोंही मानो परंतु उसी ग्रंथमें इनोका मत त्रोडनेवाला कथन होवे, वो कथन नही मानना चाहियें ! इसी तरें जो ढूंढीयोकी माफक जहां अपनेंकों अनुकूल होवे सो वचन सत्य और जो अपनेकों प्रतिकूल होवे सो वचन असत्य कह देनेके तुल्य वाणी बन जाती है.
हमारा कहना यह है की कुतर्क करनेवाला, शास्त्रकारोंका लेखकों जुठा ठहराने वास्ते कोट्यावधि कुयुक्तियों करो, परंतु महागंभीर आशयवाले, अरु समुद्र जैसी बुद्धिवाले पूर्वांचार्योंने जो शास्त्रोंकी रचना करी है तिनका अस्खलित वचनका किसी कुतर्की तुच्छमतिवाले लोकोसें पराभव नही हो सक्ता है, किंतु पराभव करनेवाला आपही आपसें स्खलन हो जाता है. जो शास्त्रोंकी अपेक्षा छोडके अपनी कुयुक्तियोंसें नवीन मत निकालनेका उद्यम करनेको चाहना रखता है उसका बोल असंमजस मूर्खोके टोलेमें इच्छामाफक कभी प्रमाणभी हो जावे परंतु विवेकी जनोके आगे तो अत्यंत निस्तेज हो जाता है. जुठा कभी सच्चा नही होता है.
अब इनके कहे मुजब पंचांगी माननेसें तो श्रुतदेवता क्षेत्रदेवता अरु भवनदेवताका कायोत्सर्गादिकका करना सिद्ध नही होता है परंतु हम सत्य कह देते है कि इनोने जो यह समज अपने दिलमें निश्चित करके रखा हैं सोभी इनोकी असत्य कल्पनाही जान लेनी परंतु सापेक्ष कल्पना नही है. हम पंचांगीके पाठसेंही पूर्वोक्त देवतांयोंका कायोत्सर्ग करना प्रमाण हैं ऐसा सिद्ध कर देते हैं.
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( ७० ) तिसमें प्रथम तो श्री आवश्यक सूत्रकी निर्युक्ति, चूर्णि और टीकाका प्रमाण लिखते हैं ॥ चाउम्मासि य वरिसे, उस्सग्गो खित्तदेवयाए य ॥ परिकयसिज्झ सुगए, करेंति चउमासिए वेगे ॥ १ ॥
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